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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
तिष्ठते, बाह्यरूपतयाऽध्यवसितस्य बुद्धयाकारस्य शब्दजन्यत्वाद् वाच्यवाचकलक्षणसम्बन्धः कार्यकारणभावात्मक एव । तथा च शब्दस्तस्य प्रतिबिम्बात्मनो जनकत्वाद् वाचक उच्यते प्रतिबिम्बं च शब्दजन्यत्वाद् वाच्यम् ।
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तेन यदुक्तम्
तदसंगतम्, निषेधमात्रस्य शब्दार्थत्वानभ्युपगमात् । एवं तावत् प्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाच्छब्दैरुपजन्यवाद् मुख्यः शब्दार्थो व्यवस्थितः शेषयोरप्यपोहयोर्गौणं शब्दार्थत्वमविरुद्धमेव । तथाहि - [ तत्त्व सं० २०१३ ] साक्षादपि च एकस्मिन्नेवं च प्रतिपादिते । प्रसज्यप्रतिषेधोऽपि सामर्थ्येन प्रतीयते ॥
सामर्थ्य च गवादिप्रतिबिम्बात्मनोऽपरप्रतिबिम्बात्मविविक्तत्वात् तदसंयुक्ततया प्रतीयमानत्वम्, तथातत्प्रतीतौ प्रसज्यलक्षणापोहप्रतीतेरप्यवश्यं सम्भवात् अतस्तस्यापि गौणशब्दार्थत्वम् । स्वलक्षणस्यापि गौणशब्दार्थत्वमुपपद्यत एव । तथाहि - प्रथमं यथावस्थितवस्त्वनुभवः ततो विवक्षा ततस्तात्वादिपरिस्पन्दः, ततः शब्द इत्येवं परम्परया यदा शब्दस्य बाह्यार्थेष्वभिसम्बन्धः स्यात् तदा विजातीयव्यावृत्तस्यापि वस्तुनोऽर्थापत्तितोऽधिगम इत्यन्यव्यावृत्तवस्त्वात्माऽपोहः शब्दार्थ इत्युपचर्यते । तदुक्तम् [त० सं०
[ अपोहमाक्षिप्तवतः कुमारिलस्य प्रतिक्षेपः ]
'निषेधमात्रं नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते इति (४३-४)
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१०१४-१५]
उस बुद्धि में बाह्यार्थरूप से प्रतीत होता है । इसलिये वाच्यवाचकभाव कहिये या कार्यकारणभाव संबंध कहिये एक ही है । निष्कर्ष, प्रतिबिम्बरूप वाच्यार्थ का जनक होने से शब्द वाचक होता है और अर्थप्रतिबिम्ब शब्दजन्य होने से वाच्य कहा जाता है।
हम विधिरूप अर्थप्रतिबिम्ब को शब्दार्थ मानते हैं इसलिये यह जो पहले ( पृ० ४३-२० ) कहा था 'मात्र निषेधरूप अपोह यहाँ शाब्दबुद्धि में नहीं भासता है" यह गलत ठहरता है । कारण, हम निषेधमात्र को शब्दार्थ नहीं मानते हैं । उपरोक्त रीति से हमने यह बता दिया है कि प्रतिबिम्ब स्वरूप अपोह साक्षात् शब्दजन्य होने से वही मुख्य शब्दार्थ घटता है । तीन में से शेष दो अपोहों को गौणरूप से हम शब्दार्थ मानते हैं वह भी अविरुद्ध है । देखिये
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“जन्यत्व के कारण एक अपोह में साक्षात् शब्दार्थरूपता प्रतिपादन करने पर प्रसज्यप्रतिषेध (रूप अपोह) भी सामर्थ्य के जरिये प्रतीत हो सकता है ।"
सामर्थ्य का मतलब यह है कि - गोपिण्डादि के प्रतिबिम्ब का स्वरूप अन्य ( अश्वादि) के प्रतिबिम्ब के स्वरूप से व्यावृत्त होने से, अन्यप्रतिबिम्ब के साथ असंबद्धरूप से भी गोप्रतिबिम्ब का भान होता है । और अन्यव्यावृत्ति का भान होने पर अवश्यमेव प्रसज्यप्रतिषेधरूप अपोह का भान होना अनिवार्य है क्योंकि उस के विना व्यावृत्ति की प्रतीति शक्य नहीं है । इसलिये प्रसज्यप्रतिषेध अपोह भी परम्परया गौणरूप से शब्दार्थ घट सकता है । स्वलक्षण को भी उपचार से शब्दार्थ मानना युक्तिसंगत है । देखिये - शब्दोत्पत्ति का क्रम ऐसा है कि पहले प्रतिपाद्यरूप अभिमत यथार्थ वस्तु का अनुभव (निर्विकल्प ज्ञान ) होगा । उस के बाद उस के निरूपण की इच्छा उठेगी । उस इच्छा से ओष्ठ तालु आदि में क्रिया पैदा होगी, तब शब्दप्रयोग होगा । इस प्रकार परम्परया अग्नि आदि स्वलक्षण वस्तु के साथ शब्द का सम्बन्ध घटित रहेगा । उस सम्बन्ध से विजातीयव्यावृत्त स्वलक्षण रूप वस्तु का शब्दज्ञानमूलक अर्थापत्ति से ( अर्थात् यह अभ्रान्त गोशब्द का प्रयोग गो-स्वलक्षण के
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