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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् [ स्वपक्षाक्षेपप्रतिविधाने पूर्वमपोहबादिकृता स्वमतस्पष्टता ] अत्र सौगताः प्रतिविदधति - द्विविधोऽस्माकमपोहः पर्युदासलक्षणः प्रसह्यप्रतिषेधलक्षणश्च । पर्युदासलक्षणोऽपि द्विविधः - बुद्धिप्रतिभासोऽर्थेष्वनुगतैकरूपत्वेनाध्यवसितो बुद्धयात्मा, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणार्थात्मकश्च । तत्र यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थ ज्वरादिशमनं कार्यमुपजनयन्ति तथा शाबलेयादयोऽप्यर्थाः सत्यपि भेदे प्रकृतैकाकारपरामर्शहेतवो भविष्यन्त्यन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम् । तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानं तत्र यदाकारतयाऽर्था(थ)प्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्नमाभाति तत्र 'अन्यापोहः' इति व्यपदेशः । न (? स) चासावर्धाभासो ज्ञानतादात्म्येन व्यवस्थितः सन् बाह्यार्थाभावेऽपि तस्य तत्र प्रतिभासनाद् बाह्यकृतः । ___न चापोहव्यपदेशस्तत्र निर्निमित्तः 'मुख्य- गौणभेदभिन्नस्य निमित्तस्य सद्भावात् । तथाहि - विकल्पान्तरारोपितप्रतिभासान्तरोद्भावन(? राद् भेदेन) स्वयं प्रतिभासानात् मुख्यस्तत्र तद्व्यपदेशः 'अपोह्यत इत्यपोहः अन्यस्मादपोहः अन्यापोहः' इति व्युत्पत्तेः । उपचारात् तु त्रिभिः कारणैस्तत्र तद्व्यपदेशः ★ अपोहशब्दार्थवादी का स्वमतस्पष्टीकरण★ अब अपोहवादी बौद्धों की और से कुमारिल आदि के लिये हुए आक्षेपों का प्रतिकार शुरू होता है - हमारे मत में अपोह की दो विधाएँ है । १ - पर्युदासरूप २ प्रसज्यप्रतिषेधरूप । पर्युदास की भी दो विधाएँ है । १ - बुद्धिप्रतिभास, जो कि बुद्धिरूप ही होता है फिर भी अर्थों में अनुगत एकरूपतारूप से वह अध्यवसित होता है । २ - विजातीयों से व्यावृत्त स्वलक्षणरूप अर्थ । बात यह है कि 'हरडे' आदि अनेक विभिन्न औषधों में कोई एक सर्वसाधारण सामान्य तत्त्व न होने पर भी ज्वरशमनादि एक साधारण कार्य उन सभी से होता है। इसी प्रकार शाबलेय आदि गोपिण्डों में परस्पर भेद होने पर भी एवं सर्वसाधारण एक वास्तविक सामान्य (जाति) न होते हुये भी विचाराधीन एकाकार परामर्श के हेतु बन सकेंगे। मतलब, एक विधिरूप सामान्य मानने की जरूर नहीं है । स्वलक्षण के अनुभवबल से जो विकल्पज्ञान उत्पन्न होता है उस में ज्ञान से अभिन्न जो अर्थाकाररूप से अर्थप्रतिच्छाया अनुभूत होती है वही 'अन्यापोह' संज्ञा को धारण करती है । ज्ञान से अभेद रखता हुआ यह अर्थाभास बाह्य अर्थ रूप (जातिरूप) न होने पर भी उस का वहाँ बाह्यार्थ में होने का प्रतिभास होता है इसलिये उपचार से बाह्यकृत माना जा सकता है। ★ अपोह के व्यपदेश के मुख्य-गौण निमित्त ★ उक्त अपोहों में 'अपोह' शब्दप्रयोग सर्वथा निर्निमित्त (प्रवृत्ति निमित्त के विना)ही है - ऐसा मत मान लेना, क्योंकि एक मुख्य और तीन गौण (वास्तविक और औपचारिक) दोनों प्रकार के चार प्रवृत्तिनिमित्त यहाँ मौजूद है । देखिये (१) अर्थप्रतिबिम्ब रूप जो अपोह है वह स्वयं अन्य विकल्प से उपस्थापित जो अन्य अर्थप्रतिभास है उससे भिन्नरूप से स्वत: भासित होता है इसलिये उसके लिये मुख्य रूप से 'अपोह' शब्द प्रयुक्त होता है। अपोह की जो व्युत्पत्ति है - 'अपोहनं अपोहः = अपोहनक्रियारूप होना यही अपोह, अन्य से अपोह यही अन्यापोह' यह व्युत्पत्ति यहाँ पूर्णरूप से सार्थक है। उपचार के आश्रयण से तीन निमित्तों से 'अपोह' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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