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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ १५-१७] किंच "इदं तावत् प्रष्टव्यो भवति भवान् - किमपोहो वाच्यः अथावाच्य इति । वाच्यत्वे विधिरूपेण वाच्यः स्यात् ? अन्यव्यावृत्त्या वा ? तत्र यदि विधिरूपेण तदा नैकान्तिकः शब्दार्थः 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति । अथान्यव्यावृत्त्येति पक्षस्तदा तस्याप्यन्यव्यवच्छेदस्यापरेणान्यव्यवच्छेदरूपेणाभिधानम् तस्याप्यपरेणेत्यव्यवस्था स्यात् । अथाऽवाच्यस्तदा 'अन्यशब्दार्थापोहं शब्दः करोति' इति व्याहन्येत" [न्यायवा० पृ. ३३० पं० १८-२२] आचार्यदिग्नागोक्तम् - "सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रमं जातिधर्मा एकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकपरिसमाप्तिलक्षणा अपोह एवावतिष्ठन्ते; तस्माद् गुणोत्कर्षादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः साधुः" [ ] इत्येतदाशंक्य कुमारिल उपसह(संहर)बाह - [श्लो० वा. अपो० श्लो० १६३-१६४] अपि चैकत्व-नित्यत्व-प्रत्येक समवायित्वाः (ताः) । निरुपाख्येष्वपोहेषु कुर्वतोऽसूत्रकः पटः ॥ तस्माद् येष्वेव शब्देषु नञ्योगस्तेषु केवलम् । भवेदन्यनिवृत्त्यंशः स्वात्मैवान्यत्र गम्यते ॥ 'स्वात्मैव' इति स्वरूपमेव विधिलक्षणम् । “अन्यत्र' इति नजा रहिते । तनापोहः शब्दार्थ इति भट्टोड्योतकरादयः । ऐसा शब्दार्थ के बारे में एकान्त नियम नहीं हो सकेगा क्योंकि अपोह को तो विधिरूप से ही वाच्य मानते हैं। यदि अपोह को भी अन्यापोहरूप से ही वाच्य मानेंगे तो अन्यव्यवच्छेदस्वरूप अपोह का भी द्वितीय अन्यव्यवच्छेदरूप से निरूपण करना पडेगा, उसका भी तृतीय अन्यव्यवच्छेदरूप से, उस का भी चतुर्थ अन्यव्यवच्छेदरूप से... इस प्रकार अन्त ही नहीं आयेगा, फलतः प्रथम अपोह का भी ठीकाना नहीं रहेगा । यदि अपोह को अवाच्य मानेंगे तो 'एक शब्द अन्य शब्द के अर्थ के अपोह को करनेवाला है' इस प्रतिज्ञा का व्याघात प्रसक्त होगा, एक ओर कहना कि अपोह अवाच्य है, दूसरी ओर अन्यशब्दार्थ अपोह को ही आप वाच्य बता रहे हैं। ★जाति के गुणधर्म अपोह में असम्भव ★ दिग्नाग (बौद्ध) आचार्यने कहा है - जाति (सामान्य तत्त्व) में तीन गुण माने जाते हैं - 'सर्वव्यक्तिओं में रहते हुए भी भिन्न भिन्न न होने से, तथा प्रवाहत: व्यक्तिरूप आश्रय का उच्छेद न होने से और प्रत्येक व्यक्तिओंमें परिपूर्णरूप से समवेत हो कर रहने से इन तीन हेतुओं से जाति में, क्रमश: जो ये तीन गुणधर्म माने जाते हैं - एकत्व, नित्यत्व और प्रत्येकवृत्तित्व - ये सभी गुणधर्म अपोह में भी अवस्थित हैं । इसलिये जाति को शब्दार्थ मानने की अपेक्षा अपोह को शब्दार्थ मानने के पक्ष में ज्यादा गुण = लाभ (गौरवादिपरिहाररूप) होने के कारण सिद्ध होता है कि 'अर्थान्तरापोह ही सच्चा शब्दार्थ है'। दिग्नाग की ओर से ऐसी आशंका करके कुमारिल ने उस के प्रत्युत्तर में उपसंहार करते हुए यह कहा है कि "अपोह सर्वथा निरुपाख्य = तुच्छ (सर्वआख्याबाह्य) है उस में एकत्व, नित्यत्व, प्रतिव्यक्तिसमवेतत्व आदि धर्मों की कल्पना बिना सूत के वस्र बुनने जैसी है ।" "इसलिये जिन शब्दों में नकार का योग हो उनमें ही अन्यव्यावृत्ति अंश की कल्पना ठीक हो सकती है। अन्यत्र (जहाँ नकारयोग न हो वहाँ) तो अपनी आत्मा ही भासित होती है ।" यहाँ अन्यत्र यानी 'जहाँ नकारयोग नहीं है वहाँ' और 'अपनी आत्मा' यानी "विधिरूप अर्थ' समझना । निष्कर्ष : भट्ट, उद्दयोतकर आदि का अभिमत यही है कि "अपोह शब्दार्थ नहीं है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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