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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रतिपत्तिः? नहि खदिरे छिद्यमाने पलाशे छिदा भवति । अथागोवि प्रतिषेधो 'गौरगौर्न भवति' इति, केनाऽगोत्वं प्रसक्तं यत् प्रतिषिध्यते" इति ॥[न्यायवा० पृ०३२९ पं०२४-पृ०३३० पं० ४] "इतनायुक्तोऽपोहः विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि-योऽयमगोरपोहो गवि स किं गोव्यतिरिक्तः आहोश्विदव्यतिरिक्तः ? यदि व्यतिरिक्तः - स किमाश्रितः अथाऽनाश्रितः ? ययाश्रितस्तदाऽऽश्रिततत्वाद् गुणः प्राप्तः । ततश्च गोशब्देन गुणोऽभिधीयते न 'गौः' इति 'गौस्तिष्ठति' 'गौर्गच्छति' इति न सामानाधिकरण्यं प्राप्नोतीति । अथानाश्रितस्तदा केनार्थेन 'गोरगोपोहः' इति षष्ठी स्यात् ? अथाव्यतिरिक्तस्तदा गोरेवासौ इति न किश्चित् कृतं भवति ।"[न्यायवा० पृ० ३३० पं० ८-१८४] "अयं चापोहः प्रतिवस्त्वेकः अनेको वेति वक्तव्यम् । यद्येकस्तदानेकगोद्रव्यसम्बन्धी गोत्वमेवासौ भवेत् । अयानेकस्ततः पिण्डवदानन्यादाख्यानानुपपत्तेरवाच्य एव स्यात् ।" [न्यायवा० पृ. ३३० पं० अपोहवादी : हम सिर्फ 'अगौ का निषेध' नहीं दिखलाते किन्तु गौ में अगौ का निषेध दिखलाते हैं - इस लिये अगौ के निषेध द्वारा गौ में गो की बुद्धि होती है। उद्योतकर : अरे ! पहले तो यही प्रश्न है कि गौ में किस शब्द से अगौ का प्रसञ्जन हुआ था जिस से आप को 'गौ' शब्द के द्वारा अगौ का निषेध गौ में दिखलाने की कुचेष्टा करनी पडती है ? प्रसक्त का ही निषेध होता है, अप्रसक्त का नहीं। ★ अगोअपोह गो से पृथक् या अपृथक् ? ★ इसलिये भी अपोह गलत है कि उस के ऊपर कोई विकल्प घटता नहीं । देखिये - गो में अगो के अपोह की बात जो कही गई, क्या वह गो से पृथक् है या अपृथक् ? पृथक् है तो गो में आश्रित है या नहीं है ? यदि आश्रित मानेंगे तो आश्रित होने के कारण उस को गुणात्मक मानना होगा । तब 'गो' शब्द से गुण का निरूपण होगा किन्तु गोपिण्ड का नहीं । फलत: 'गो खडा है' 'गो जा रहा है' ऐसे प्रयोगों में जो सामानाधिकरण्य - एक दूसरे का अभेदान्वय प्रतीत होता है वह नहीं होगा। कारण गोशब्दार्थभूत गुण में स्थान-गमनादि क्रिया का बाध है इस लिये स्थितिवान् या गमनवान् अर्थ में गोपिण्ड का अभेदान्वय शक्य नहीं । यदि गो में अगोपोह को अनाश्रित मानेंगे तो पृथक् होने पर उस के साथ कोई सम्बन्ध न रहने से 'गो का (में) अगोऽपोह' इस प्रकार छट्ठी विभक्ति का प्रयोग असंगत हो जायेगा । कौन सा वह अर्थ होगा जो सम्बन्ध बन कर षष्ठी के प्रयोग को संगत करेगा ? यदि गो में अगो के अपोह को अपृथक् - अभिन्न ही मानेंगे तब तो अगोपोह के निरूपण से गो का ही प्रतिपादन फलित हुआ - इस में सिर्फ द्रविडप्राणायाम के सिवा आपने और क्या बड़ा काम किया ? यह भी बताईये कि वस्तु में अपोह सर्वत्र एक ही है या अलग अलग ? यदि एक है तब तो अनेक गोपिण्डों के साथ सम्बन्ध रखनेवाले गोत्व-सामान्य से वह भिन्न नहीं है-चाहे अपोह कहीये या गोत्व, एक ही बात है । यदि व्यक्तिओं की तरह प्रतिव्यक्ति अपोह भी भिन्न भिन्न ही है तब तो संख्या से अनन्त होने के कारण किसी एक शब्द से उनका प्रतिपादन अशक्य होने से अपोह अवाच्य बन जायेगा। यह भी प्रभ आप के समक्ष आयेगा कि अपोह वाच्य है या अवाच्य ? वाच्य है तो विधिरूप से वाच्य है या अन्यव्यावृत्तिरूप से ? यदि अपोह को विधिरूप से वाच्य मानेंगे तो 'शब्द का अर्थ अन्यापोह ही है' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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