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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् "न नैवमिति निर्देशे निषेधस्य निषेधनम् । एवमित्यनिषेध्यं तु स्वरूपेणैव तिष्ठति" [ इति न्यायात् । ७२ [ अपोहपक्षे उद्योतकरकृताक्षेपाणामुपन्यासः ] उद्दयोतकरस्त्वाह " अपोहः शब्दार्थः इत्ययुक्तम् अव्यापकत्वात् । यत्र द्वैराश्यं भवति तत्रेतरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते, यथा 'गौः' इतिपदात् गौः प्रतीयमानः अगौर्निषिध्यमानः । न पुनः सर्वपदे एतदस्ति । न ह्यसर्वं नाम किञ्चिदस्ति यत् सर्वशब्देन निवर्त्तेत । अथ मन्यसे एकादि असर्वम् तत् सर्वशब्देन निवर्त्तत इति । तन्न, स्वार्थापवाददोषप्रसङ्गात् । एवं ह्येकादिव्युदासेन प्रवर्त्तमानः सर्वशब्दोऽङ्गप्रतिषेधादङ्गव्यतिरिक्तस्याङ्गिनोऽनभ्युपगमादनर्थकः स्यात् । अङ्गशब्देन ह्येकदेश उच्यते, एवं सति का प्रसज्यरूप प्रतिषेध तो यहाँ हो सकता है" - तो यह सम्भव नहीं है, कारण पहले कह दिया है। 'पचति' इत्यादि संदर्भ में पहले कहा है कि प्रसज्य प्रतिषेध मानने पर तो विधिरूप अर्थ ही फलित होता है। उपरांत यह न्याय है कि 'एवम् न (इति) न' (ऐसा नहीं है ऐसा नहीं) इस प्रकार निर्देश करने पर निषेध का निषेध होता है । फलत: 'ऐसा' शब्द से भासित होने वाला अर्थ स्वरूपतः अनिषेध्य ही रह जाता है ।" [यहाँ तक अपोहवाद प्रति कुमारिल मीमांसक के आक्षेपों का निरूपण हुआ- अब उद्घोतकर के आक्षेपों की बात करते हैं] ★ उद्योतकर के आक्षेप ★ अपोह के बारे में उद्योतकर ( नैयायिक) ने अपने न्यायवार्त्तिक में समीक्षा करते हुए यह कहा है कि 'अपोह शब्दार्थ है' यह बात गलत है क्योंकि वह व्यापक नहीं है । हाँ, जहाँ 'तद् और तदितर' ऐसा द्वन्द्व संभवित हो वहाँ एक के प्रतिषेध से अन्य की प्रतीति की जा सकती है जैसे 'गौ' पद से अगौ के निषेध की और गौ की प्रतीति होती है । किन्तु सर्वत्र ऐसी द्वन्द्वात्मक सम्भावना पाना कठिन है । जैसे 'सर्वपद' में द्वन्द्व का उपलम्भ शक्य नहीं है । 'सर्व' पद के अर्थ में विश्ववर्त्ती सकल पदार्थ समा जाते हैं अतः 'असर्व' पद से सर्वभिन्न किसी भी वस्तु की प्रतीति सम्भव नहीं रहती क्योंकि ऐसा कोई 'असर्व' अर्थ ही शेष नहीं रहता जिस की 'सर्व' पद से व्यावृत्ति हो सके । 1 अपोहवादी : हम 'एक आदि' वस्तु को 'असर्व' मानेंगे जिस की 'सर्व' शब्द से व्यावृत्ति हो सकेगी । जो एक है वह 'सर्व' नहीं है इसलिये उसको असर्व मान कर उसकी 'सर्व' पद से व्यावृत्ति माननो अशक्य नहीं है। - ] उद्योतकर : ऐसा शक्य नहीं है । कारण 'सर्व' पद के अर्थ में एक आदि भी समाविष्ट ही है इसलिये जो सर्वपद का ही अर्थ है उस का सर्वपद से अपवाद व्यावर्त्तन करने की विपदा आयेगी । परिणाम यह होगा कि सर्वपद अपने अर्थ के अंगभूत एक दो आदि प्रत्येक 'असर्व' अर्थों के निषेध में प्रवृत्त होगा तो अपना तो कुछ अंगी जैसा अर्थ ही नहीं बचेगा । कहने का मतलब यह है कि 'सर्व' शब्द समस्त अर्थसमुदाय का वाचक होता है, एक-दो आदि अर्थ उस समुदाय के ही एक एक अंग हैं इन एक एक अंगो का 'सर्व' पद से निषेध मानने पर पूरे अभी समुदाय का ( एक एक कर के) निषेध हो जायेगा, क्योंकि अंगों को छोड कर और तो कोई स्वतन्त्र अभी होता नहीं । अङ्ग यानी किसी समुदाय का एक अंश, समुदायवाचक सर्व-सकल आदि पदों से अगर उन एक एक अंगरूप 'असर्व', 'असकल' आदि का व्यावर्त्तन मानेंगे तो, समुदाय = Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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