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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
अतोऽपोह्याभावादव्यापिनी व्यवस्था ।
ननु हेतुमुखे निर्दिष्टम् “अज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्वयवच्छेदन ज्ञेयेऽनुमानम्" [हेतु० ] इति तत् कथमव्यापित्वं शब्दार्थव्यवस्थायाः ? नैतत्, यतो यदि ज्ञेयमप्यज्ञेयत्वेनापोह्यमस्य कल्प्यते तदा वरं वस्त्वेव विधिरूपं शब्दार्थत्वेन कल्पितं भवेत् यदध्यवसीयते लोकेन, एवं ह्यदृष्टाध्यारोपो दृष्टापलापश्च न कृतः स्यात् ।
[विकल्पप्रतिबिम्बार्थमतनिरूपण-निरसनम् ] ये त्वाहुः - "विकल्पप्रतिबिम्बमेव सर्वशब्दानामर्थः, तदेव चाभिधीयते व्यवच्छिद्यत इति च" [ ] तेऽपि न युक्तकारिणः । निराकारा बुद्धिः आकारवान् बाह्योऽर्थः “स बहिर्देशसम्बन्धो विस्पष्टमुपलभ्यते''[ ] इत्यादिना ज्ञानाकारस्य निषिद्धत्वात् आन्तरस्य बुद्ध्यारूढस्याकारस्याऽसत्त्वात् तदवसायकत्वं शब्दानामयुक्तम्, अत एव तस्यापोह्यत्वमप्यनुपपन्नम् । ये च 'एवम्-इत्थम्' इत्यादयः शब्दास्तेषामपि न किंचिदपोह्यम्, प्रतियोगिनः पर्युदासरूपस्य कस्यचिदभावात् । अथ 'नैवम्' इत्यादिप्रसज्यरूपं प्रतिषेध्यमत्रापि । न, उक्तोत्तरत्वात् (६८-६)। ही सिद्ध नहीं होगा । आखिर 'ज्ञेय' शब्द से 'ज्ञान का विषय' ऐसा विधिरूप ही अर्थ मान्य करना पड़ेगा । यहाँ अपोहात्मक अर्थ न घटने से 'अपोह ही शब्दार्थ होता है यह व्यवस्था अपूर्ण ही सिद्ध होगी।
प्रश्न : 'हेतुमुख' प्रकरण में कहा तो है कि अज्ञेयरूप व्यवच्छेद्य (असत् पदार्थ) की कल्पना कर के, 'ज्ञेय' शब्द से उसका व्यवच्छेद करने द्वारा 'ज्ञेय' शब्द का भी अपोह ही वाच्यार्थ है' यह अनुमान कर सकेंगे - तो हमारी शब्दार्थव्यवस्था अपूर्ण क्यों रहेगी ?
उत्तर : प्रश्न गलत है । जब 'ज्ञेय' शब्द से असत् अज्ञेय की व्यवच्छेद्यरूप में कल्पना ही करना है तो इस से बेहतर है कि 'ज्ञेय' शब्द का सीधा ही विधिआत्मक वस्तुरूप अर्थ मान लिया जाय, जिस से कि असत् अर्थ की कल्पनारूप विडम्बना न प्राप्त हो । लोक में भी शब्दों से विधिरूप अर्थ का ही अध्यवसाय प्रसिद्ध है । आप उस को मान लीजिये जिस से दृष्ट यानी लोकसिद्ध वस्तु का अपलाप कर के अदृष्ट = असिद्ध वस्तु की कल्पना करने का अपराध न करना पडे ।
★ विकल्पगत प्रतिबिम्ब शब्दार्थ नहीं★ कुछ लोगों का यह कहना है कि - "विकल्पगत प्रतिबिम्ब (अर्थात् अर्थ की प्रतिच्छाया जैसा कुछ) ही शब्दमात्र का अर्थ है। शब्द से उसी का व्यवच्छेद्यरूप से निरूपण होता है इसलिये वह प्रतिबिम्ब वाच्य भी है और व्यवच्छेद्य भी वही है " - किन्तु यह कथन अयुक्त है। कारण, बुद्धि का अपना कोई आकार नहीं होता, आकार तो बाह्य अर्थ का होता है । "जो बुद्धि में भासता है वह तो स्पष्ट ही बाह्यदेश के साथ ही सम्बद्ध उपलब्ध होता है" इत्यादि कथन से पूर्वपक्षी ने ही ज्ञान के आकार का निषेध किया है । बाह्य अर्थ के निमित्त से बुद्धि में आकार नहीं होता । एवं अभ्यन्तर किसी निमित्त से भी बुद्धि में आकार का प्ररोहण गगनपुष्पवत् असत् है । इसलिये आकाररूप प्रतिबिम्ब को शब्दार्थ दिखाना गलत है। यही कारण है कि उस को शब्द के द्वारा अपोह्य भी नहीं माना जा सकता।
_ 'एवम्-इत्थम्' (= इस ढंग से, इस रीति से) इत्यादि शब्दों का भी कोई अपोह्य नहीं है, क्योंकि पर्युदासरूप कोई निषेध्य प्रतियोगी ही यहाँ मौजूद नहीं है । यदि कहें कि - ‘एवम् न' = (ऐसा नहीं) - इस अर्थ
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