SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ऽस्ति, न चाऽसम्बन्ध्यमानस्य, नजाऽपोहनं युक्तम्, अतश्चादिष्वपोहाभावः । अपि च, कल्माषवर्णनवच्छबलैक्य(१क)रूपो वाक्यार्थ इति नान्यनिवृत्तिस्तत्त्वेन व्यपदेष्टुं शक्या, निष्पन्नरूपस्य प्रतियोगिनोप्रतीतेः । या तु 'चैत्र । गामानय' इत्यादावचैत्रादिव्यवच्छेदरूपाऽन्यनिवृत्तिरवयवपरिग्रहेण वर्ण्यते सा पदार्थ एव स्यात् न वाक्यार्थः तस्यावयवस्येत्थं विवेकुमशक्यत्वात् - इत्यव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था । किं च 'न अन्यापोह अनन्यापोहः' इत्यादौ शब्दे विधिरूपादन्यद् वाच्यं नोपलभ्यते, प्रतिषेधद्वयेन विधेरेवावसायात् । अत्र च 'नत्रश्चापि नञा योगे' (६९-५) इत्यनेनार्थस्य गतत्वेऽपि 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्येवंवादिनां स्ववचनेनैव विधिरिष्ट इति ज्ञापनार्थं पुनरुक्तम् । तथाहि - अनन्यापोहशब्दस्यान्यापोहः शब्दार्थो व्यवच्छेद्यः, स च विधेर्नान्यो लक्ष्यते । ये च प्रमेय-ज्ञेयाऽभिधेयादयः शब्दास्तेषां न किश्चिदपोह्यमस्ति, सर्वस्यैव प्रमेयादिस्वभावत्वात् । तथाहि - यन्नाम किंचिद् व्यवच्छेद्यमेषां कल्प्यते तत् सर्व व्यवच्छेद्याकारणालम्ब्यमानं ज्ञेयादिस्वभावमेवावतिष्ठते, न ह्यविषयीकृतं व्यवच्छेत्तुं शक्यम् यहाँ चादिशब्दो में अपोह शब्दार्थ नहीं है । दूसरी बात यह है कि शब्दसमूह से वाक्य बनता है इसलिये वाक्यार्थ भी विविध अर्थों के समूह रूप होता है - वैविध्यपूर्ण होता है, उस में 'च' आदि पद भी अन्तर्गत होने से परमार्थत: किसी भी वाक्यार्थ को अन्यनिवृत्तिरूप मान नहीं सकते क्योंकि उसमें निष्पन्न स्वरूपवाले किसी एक नियत प्रतियोगी का भान होता नहीं है । 'हे चैत्र ! धेनु को ले आओ' ऐसे वाक्यों में एक एक अवयव को लेकर जो अचैत्रव्यावृत्ति आदि का वर्णन कोई अपोहवादी करता है वह भी वाक्यार्थरूप व्यावृत्ति का नहीं किन्तु पदार्थरूप व्यावृत्ति का ही वर्णन है । वाक्यार्थ के निरवयव होने से उस के अवयवों का इस रीति से विभाग ही नहीं किया जा सकता । निष्कर्ष : शब्दार्थव्यवस्था अपोह-शब्दार्थवादी के मत में अपूर्ण ही रह जाती है । ★अन्यापोहशब्द से विधिरूप वाच्य की सिद्धि* तदुपरांत, 'अन्यापोह नहीं = अनन्यापोह' इत्यादि समासविधि में 'अन्यापोह' शब्द से विधिरूप ही वाच्यार्थ की उपलब्धि अनिवार्यतया मान्य करना होगा । कारण, दो निषेध के फलस्वरूप विधि का ही भान होता है । हालाँकि यह बात- एक नकार के साथ दूसरे नकार के योग में विधि का ही प्रतिपादन होता है - इत्यादि पहले अभी कह चुके हैं, फिर भी 'अन्यापोह शब्दार्थ है' ऐसा बोलने वाले अपोहवादी के अपने वचन से ही विधिरूप शब्दार्थ फलित होने का यहाँ लक्ष पर लाना है, इस लिये फिर से कहा है । देखिये – 'अनन्यापोह' शब्द से अन्यापोह का व्यवच्छेद ही शब्दार्थरूप मानना होगा । अन्यापोह का व्यवच्छेद तो विधिरूप ही हो सकता है और तो कोई लक्ष में नहीं आता। यह भी उस को सोचना चाहिये कि 'प्रमेय-ज्ञेय-अभिधेय' आदि शब्दों का तो कोई व्यवच्छेद्य ही प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि वस्तुमात्र प्रमेयादिस्वरूप ही होती है । देखिये - 'ज्ञेय' आदि शब्द से 'अज्ञेय' आदि की व्यवच्छेद्य रूप में कल्पना करनी पडेगी, वहाँ वह अज्ञेय 'व्यवच्छेद्यरूप से ज्ञान का विषय' करना पडेगा, अर्थात् उस को ज्ञेय ही मानना पडेगा, क्योंकि व्यवच्छेद्यरूप से ज्ञान का विषय किये विना कैसे उस का व्यवच्छेद कर सकेंगे ? परिणाम यह आयेगा कि 'ज्ञेय' शब्द का व्यवच्छेद्य भी ज्ञेयरूप हो जाने से वास्तव में कोई व्यवच्छेद्य *. 'तस्याऽनवयवस्येत्थ' इति तत्त्वसग्रहपञ्जिकायाम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy