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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ किंच, 'पचति' इत्यादी साध्यत्वं प्रतीयते, यस्यां हि क्रियायां केचिदवयवा निष्पन्नाः केचिदनिष्पनाः सा पूर्वापरीभूतावयवा क्रिया साध्यत्वप्रत्ययविषयः । तथा, 'अभूत-भविष्यति' इत्यादौ भूतादिकालविशेषप्रतीतिरस्ति, न चापोहस्य साध्यत्वादिसम्भवः निष्पनत्वादभावैकरसत्वेन । तस्मादपोहशब्दार्थपक्षे साध्यत्वप्रत्ययो भूतादिप्रत्ययव निर्निमित्तः प्राप्नोतीति प्रतीतिबाधा । न च विध्यादावन्यापोप्रतिपत्तिरस्ति पर्युदासरूपस्य निषेध्यस्य तत्राभावात् । 'न न पचति देवदत्तः' इत्यादौ च नञोऽपरेण नञा योगे नैवाऽपोहः, प्रतिषेधद्वयेन विधेरेव संस्पर्शात् । अपि च, चादीनां निपातोपसर्गकर्मप्रवचनीयानां पदत्वमिष्टम्, न चैषां नत्रा सम्बन्धोऽस्ति असम्बध्यवचनत्वात् । तथाहि - यथा हि घटादिशब्दानाम् 'अघटः' इत्यादौ नत्रा सम्बन्धेऽर्थान्तरस्य पटादेः परिग्रहात् तद्वयवच्छेदेन नत्रा रहितस्य घटशब्दस्यार्थोऽवकल्पते न तथा चादीनां नत्रा सम्बन्धो ★ साध्यत्व और भूतकाल की प्रतीति का बाध★ तथा, 'पचति' आदि शब्द से क्रिया में सिद्ध भाव नहीं किन्तु साध्यभाव प्रतीत होता है। जिस क्रिया के कुछ अंश सिद्ध हो चुकने पर भी कुछ अंश अभी सिद्ध होने वाले शेष हो - इस तरह पूर्वापर भाव में अवस्थित अंश वाली वह क्रिया ही साध्यत्व-प्रतीति का विषय होती है । तथा, 'हो चुका-होने वाला है' - ऐसे प्रयोगों में भूत एवं भावि काल प्रतीति का विषय होता है । अपोह तो सर्वदा एकमात्र अभावस्वरूपवाला होने से सदानिष्पन्न- सदासिद्ध है (या सदा असिद्ध है) इसलिये उस में साध्यत्व का सम्भव ही नहीं है। 'पूर्व में हो, अभी न हो' वह भूतकालीन है और 'अभी न हो, भावि में होनेवाला हो' उसे भाविकालीन कहते हैं। अपोह तो सदा सिद्ध (या असिद्ध) होने से भूत-भाविकाल विषयक प्रतीति का विषय बन नहीं सकता। फलत: अपोह को शब्दवाच्य मानने में साध्यत्व की और भूतकालादि की प्रतीति निमित्तशून्य (आलम्बन शून्य) बन जायेगी । दूसरी बात यह है कि विध्यर्थ प्रयोगों में (जैसे कुर्यात्-पायात् इत्यादि में) विधि प्रत्यय से इष्टसाधनता - निमन्त्रणादि अर्थों की ही प्रतीति होती है अन्यापोह की नहीं होती, क्योंकि वहाँ कोई पर्युदासरूप निषेध्य नहीं होता । "देवदत्त नहीं पकाता ऐसा नहीं" इत्यादि में एक निषेध का अन्य निषेध के साथ प्रयोग किया जाता है तब वहाँ अपोह की प्रतीति का सम्भव नहीं रहता क्योंकि दो निषेधों से विधिरूप अर्थ का ही उल्लेख किया जाता है। ★ 'च' आदि निपात के बारे में अपोहवाद निरर्थक ★ 'च' 'वा' इत्यादि निपात, प्र-उप आदि उपसर्ग और जिन की कर्मप्रवचनीय संज्ञा की गई है वे पदविशेष - इन सभी को 'पद' संज्ञा प्राप्त है । फिर भी नकार के साथ इन का सम्बन्ध नहीं होता क्योंकि ये सम्बन्धशून्य पद हैं। देखिये - घटादि शब्दों का नकार के साथ योग होने पर जो 'अघट' इत्यादि पद बनते हैं उन से पटादि का ग्रहण होता है; इसलिये जब नकार का योग न हो तब केवल 'घट' शब्द के अघटव्यवच्छेद अर्थ की कल्पना आप कर सकते हैं । किन्तु 'च' 'वा' इत्यादि पदों का नकार के साथ समासविधान ही नहीं इसलिये नकार के साथ सम्बन्ध न होने का ज्ञात होता है । नकार के साथ सम्बन्ध की योग्यता जब नहीं है तो फिर उसका व्यवच्छेद भी कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता । इस से यह ध्वनित होता है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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