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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् व्यावृत्त्याधारभूतायाः व्यक्तेर्वस्तुत्वालिङ्गादिसम्बन्धात् तद्वारेणापोहस्याप्यसौ व्यवस्थाप्यः व्यक्तनिर्विकल्पज्ञानविषयत्वाल्लिङ्गसंख्यादिसम्बन्धेन व्यपदेष्टुमशक्यत्वात् अपोहस्य तद्वारेण तव्यवस्थाऽसिद्धेः ।
___ अव्यापित्वं चापोहशब्दार्थव्यवस्थायाः, 'पचति' इत्यादिक्रियाशब्देष्वन्यव्यवच्छेदाऽप्रतिपत्तेः । यथा हि घटादिशब्देषु निष्पनरूपं पटादिकं निषेध्यमस्ति न तथा 'पचति' इत्यादिषु, प्रतियोगिनो निष्पन्नस्य कस्यचिदप्रतीतेः । अथ मा भूत् पर्युदासरूपं निषेध्यम्, 'न पचति' इत्येवमादि प्रसज्यरूपं 'पचति' इत्यादेनिषेध्यं भविष्यति । असदेतद् - 'तन (?न न) पचति' इत्येवमुच्यमाने प्रसज्यप्रतिषेधस्य निषेध एवोक्तः स्यात्, ततश्च प्रतिषेधद्वयस्य विधिविषयत्वाद् विधिरेव शब्दार्थः प्रसक्तः ।। आदि की भी प्रतीति होती हैं । अपोह को शब्दवाच्य मानने पर यह नहीं घटेगा, क्योंकि अपोह अवस्तु है जब कि लिंगादि तो वस्तु के धर्म हैं । वस्तु धर्मों का - लिंगादि का अवस्तुभूत अपोह के साथ कोई सम्बन्ध मेल नहीं खाता । दूसरी ओर लिंगादि के ऊपर पर्दा डाल के सिर्फ अर्थ का भान कराने के लिये शब्द समर्थ नहीं है । फलत: 'अपोह ही शब्दवाच्य है। इस प्रतिज्ञा का शब्दजन्य लिंगादिप्रतीति से बाध प्रसक्त होगा ।
अपोहवादी : व्यावृत्ति का आधार तो आखिर नीलादि स्वलक्षण वस्तु ही है, उस के साथ तो लिंगादि का वास्तविक सम्बन्ध है । इसलिये आधार के साथ लिंगादि के सम्बन्ध को उपचार से आधारभूत व्यावृत्ति के साथ जोड कर प्रतीति को बना सकेंगे।
सामान्यवादी : स्वलक्षण व्यक्ति निर्विकल्पज्ञानमात्र का ही विषय होती है, सविकल्पज्ञान का नहीं । लिंगादि के सम्बन्ध का भान निर्विकल्पज्ञान से शक्य न होने से स्वलक्षण का भी लिंगादिसम्बन्धिरूप से व्यवहार बन सकता नहीं तो फिर उस के द्वारा अपोह का लिंगादिसम्बन्धिरूप से व्यवहार कैसे बना सकते हैं ?
★ अपोहशब्दार्थ की अव्यापकता* तथा आप जो व्यवस्था करना चाहते हैं कि 'शब्द का वाच्यार्थ अपोह है वह अपने लक्ष्य में व्यापक नहीं है । कारण, 'पचति' (=पकाता है) इत्यादि क्रिया वाचक शब्दों से क्रिया की प्रतीति होती है, अन्यव्यवच्छेदरूप अपोह की नहीं । घटादिशब्दों से तो परिपूर्णस्वरूप को प्राप्त वस्त्रादि का निषेध कदाचित् मान सकते हैं किन्तु 'पचति' आदि में यह शक्य नहीं है क्योंकि चालु पाकक्रिया के काल में (पाक कुछ हुआ है, कुछ नहीं हुआ है उस काल में जब 'पचति' शब्दप्रयोग होता है तब) और तो कोई क्रिया निष्पन्न = परिपूर्ण है नहीं जिस की व्यवच्छेद के प्रतियोगी के रूप में यहाँ प्रतीति हो सके।
अपोहवादी : 'पचति' आदि स्थलों में और कोई व्यवच्छेद-प्रतियोगी प्रतीत न होता हो तो वहाँ पर्युदास रूप व्यवच्छेद्य नहीं मानेंगे, सिर्फ 'न पचति' (= पाक नहीं करता) इस प्रसज्यरूप का प्रतिषेध 'पचति' आदि शब्दों से मानेंगे।
सामान्यवादी : यह गलत है । कारण, 'पचति' का अर्थ 'न न पचति' = नहीं पकाता - ऐसा नहीं (किन्तु पकाता है)' ऐसा करेंगे तो इस का मतलब यही होगा कि आप प्रसज्यप्रतिषेध (अभाव) का निषेध कर रहे हैं । इस से तो विधिरूप ही शब्दार्थ सिद्ध होगा क्योंकि दो निषेध विधि का आक्षेप करता है ।
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