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द्वितीयः खण्डः - का०-२
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तद्गतभेदाक्षेपो न सम्भवति, यथा मधुरशब्देन शुक्लादेः । यद्यपि शुक्लादीनां मधुरादिभेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगतस्यैव भेदस्याक्षेपे सामर्थ्यम् न तु पारतन्त्र्येणाभिहितार्थगतस्य । ततश्च नीलादिशब्देन तद्गतभेदानाक्षेपात् उत्पलादीनामतद्भेदत्वं स्यात् । अतद्भेदत्वे च न सामानाधिकरण्यम्, तेन जातिमन्मात्रपक्षे यो दोषः प्रतिपादितो भवता " तद्वतो न वाचकः शब्दः अस्वतन्त्रत्वात् " [ इति, स व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि समानः तत्रापि हि सच्छब्दो व्यावृत्त्युपसर्जनं द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतभेदानाक्षेपोऽत्रापि समान एव । को ह्यत्र विशेषः जातिर्व्यावृत्तिर्जातिमध्या (? र्जातिमान् ब्या) वृत्तिमानिति ।
]
न च लिङ्ग - सङ्ख्या- क्रिया- कालादिभिः सम्बन्धोऽपोहस्याऽवस्तुत्वाद् युक्तः एषां वस्तुधर्मत्वात् । न च लिङ्गादिविविक्तः पदार्थः शक्यः शब्देनाभिधातुम्, अतः प्रतीतिबाधाप्रसंग ः प्रतिज्ञायाः । न च की उपपत्ति न होने से व्यावृत्तिवाला अर्थ शब्दवाच्य नहीं माना जा सकता । कारण, भिन्न भिन्न दो व्यावृत्तिरूप उपाधियों के आधार पर प्रयुक्त होने वाले दो शब्द एक ही अपोहवाली वस्तु में वृत्ति होवे तभी सामानाधिकरण्य बन सकता है, किन्तु 'नीलोत्पल' आदि में इस का संभव नहीं है। कारण, अनीलव्यावृत्तिवाले पदार्थ के अनेक भेद हैं जैसे नील वस्त्र, नील मणि नील- उत्पलादि । फिर भी नीलादिशब्द परतन्त्र होने से, अनीलव्यावृत्तिवाले पदार्थ के भेदस्वरूप उत्पलादि अर्थों के निरूपण तक उन की पहुँच ही नहीं है । नीलादि शब्द परतन्त्र इस लिये हैं कि वे व्यावृत्तिवाले अर्थ का निरूपण, गौणरूप से भी व्यावृत्ति का अभिधान करने द्वारा ही कर सकते है साक्षात् नहीं । (यही परतन्त्रता है ।) जब साक्षात् व्यावृत्तिवाले अर्थ का निरूपण ही अशक्य है तो फिर उस के भेद के यानी उत्पलादि के निरूपण तक उस की पहुँच कैसे होगी ? जैसे – 'मधुर' शब्द साक्षात् मधुररसवान् अर्थ का निरूपक नहीं होता किन्तु मधुर रस के निरूपण द्वारा तद्वान् अर्थ का निरूपक होता है । फलतः मधुररसवद् अर्थ के अभिधान से शुक्लादि का निरूपण नहीं हो सकता इस लिये मधुर शब्द का शुक्ल के साथ सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता । हालाँकि शुक्लादि अर्थ मधुरादि के भेदों में अन्तर्गत ही है, फिर भी शब्द तो जिस अर्थ का साक्षाद् अभिधान करता हो उस के ही भेदों का अभिधान करने में समर्थ होता है, व्यावृत्तिवाले अर्थ का अभिधान तो परतन्त्रता से होता है साक्षात् नहीं । फलतः नीलादिशब्द से अनील व्यावृत्तिवाले पदार्थ के उत्पलादि भेद का अभिधान न होने से उत्पलादि को तद्गतभेदरूप नहीं मान सकेंगे । और तद्गतभेदरूपता न होने पर तो सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता । निष्कर्षः - बौद्धभिक्षु ने " शब्द जातिमान् अर्थ का वाचक नहीं हो सकता क्योंकि परतन्त्र है' ऐसा कह कर जातिमान मात्र वाचकता पक्ष में जो दोष दिखाया है वह बौद्धभिक्षु के व्यावृत्तिवाले अर्थ की वाच्यता के पक्ष में भी समान है । उसने जैसे कहा है वैसे हम भी कहेंगे कि 'सत्' शब्द तो गौणरूप से भी व्यावृत्ति के अभिधान द्वारा ही (तद्वान् अर्थात् ) द्रव्य का निरूपण करता है, साक्षात् नहीं । इसलिये तद्गतभेद के निरूपण के असामर्थ्य की बात यहाँ भी समान ही है । अब जाति को शब्दवाच्य कहीये या व्यावृत्ति को, अथवा जातिमान् को शब्दगम्य कहें या व्यावृत्तिवाले अर्थ को, शब्दभेद के सिवा क्या नया है ?
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★ अपोह में लिंग-संख्यादि का सम्बन्ध अशक्य ★
यह भी ज्ञातव्य है कि शब्द से सिर्फ अर्थ की नहीं किन्तु उस से सम्बद्ध लिंग-संख्या- क्रिया और काल
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