________________
६६
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् प्रयोगः न नीलोत्पलादिशब्दाः सामानाधिकरण्यव्यवहारविषयाः, भिन्नविषयत्वात्, घटादिशब्दवत् । न च यत्रैव ह्यर्थेऽनुत्पलव्युदासो वर्तते तत्रैवानीलव्युदासोऽपीति नीलोत्पलशब्दवाच्ययोरपोहयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तेः अर्थद्वारकं सामानाधिकरण्यं शब्दयोरपीति वक्तुं युक्तम्, अपोहयोर्नीरूपत्वेन क्वचिदवस्थानाऽसम्भवतो वास्तवाधेयताऽयोगाद् वन्ध्यासुतस्येव ।
भवतु वा नीलोत्पलादिष्वर्थेषु तयोराधेयता, तथापि सा विद्यमानाऽपि न शब्दैः प्रतिपाद्यते, यतस्तदेवाऽसाधारणत्वानीलोत्पलादि वस्तु न शब्दगम्यम्, स्वलक्षणस्य सर्वविकल्पातीतत्वात् तदप्रतिपत्तौ च तदधिकरणयोरपोहयोस्तदाधेयता कथं ग्रहीतुं शक्या धर्मिग्रहणनान्तरीयकत्वाद् धर्मग्रहणस्य ? न चाऽसाधारणवस्तुव्यतिरेकेण तयोरन्यदधिकरणं सम्भवति भवदभिप्रायेण । न चाऽप्रतीयमानं सदपि सामानाधिकरण्यव्यवहाराङ्गम् अतिप्रसंगात् । न च व्यावृत्तिमद् वस्तु शब्दवाच्यम् - यतो व्यावृत्तिद्वयोपाधिकयोः शब्दयोरेकस्मिनपोहवति वस्तुनि वृत्तेः सामानाधिकरण्यं भवेत् - परतन्त्रत्वाद् नीलादिशब्दस्येतरभेदानाक्षेपकत्वात् स हि व्यावृत्त्युपसर्जनं तद्वन्तमर्थमाह न साक्षात् । ततश्च साक्षादनभिधानात् अनीलादि के भेद से अनीलापोहादि भी भिन्न होते हैं।" अनुमान प्रयोग यहाँ कर सकते हैं कि नील-उत्पलादि शब्द समानाधिकरण व्यवहार के योग्य नहीं है क्योंकि दोनों का वाच्य विषय भिन्न है, जैसे कि घटपटादि शब्द ।
यदि कहें कि - "अनुत्पलापोह जिस अर्थ में रहता है उसी अर्थ में अनीलापोह भी रहता है क्योंकि नील और उत्पल शब्दों से वाच्य अपोह अनीलादि व्यावर्त्य के भेद से भिन्न होने पर भी एक ही नीलोत्पलरूप अर्थ के आश्रित होते हैं - इस प्रकार वाच्यभूत अर्थों की दृष्टि से एकार्थवृत्तिता सम्पन्न हो जाने से उन के वाचक शब्दों में भी सामानाधिकरण्य कह सकेंगे' - तो यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपोह तो तुच्छ-नि:स्वभावनीरूप है इसलिये वे कहीं रहते हो ऐसा बन नहीं सकता । वन्ध्यापुत्र असत् होने से किसी भी गृह या जंगल में नहीं रहता, इस तरह वास्तविक आधेयस्वभाव न होने से अपोह भी कहीं नहीं रह सकता।
★ अनीलापोहादि की आधेयता में शब्दवाच्यत्व असम्भव ★ अथवा, मान लेते हैं कि अपोह असत् होने पर भी नील-उत्पलादि अर्थों की अनीलापोह और अनुत्पलापोह में आधेयता होती है। फिर भी, उस के होते हुए भी शब्दों से तो उसका निरूपण संभव नहीं है। कारण, आधार स्वरूप वह नील-उत्पलादि पदार्थ असाधारण (यानी अननुगत व्यक्तिविशेषरूप) होने से शब्दवाच्य नहीं होते, क्योंकि स्वलक्षण शब्दजन्य या शब्देतरजन्य किसी भी विकल्प से ग्राह्य नहीं है; जब आधार स्वयं अगृहीत है तो उनमें रहनेवाले अपोहों का उस के आधेयरूप में ग्रहण कैसे हो सकता है ? यह नियम है कि धर्मि (=आधार) के ग्रहण विना धर्मों का ग्रहण नहीं हो सकता । तथा, अपोहवादी के मतानुसार असाधारण स्वलक्षण वस्तु को छोड कर और तो कोई अपोहों का आधार मान्य नहीं है । अत: अपोह की आधेयता मान लेने पर भी अर्थात् उस के होते हुए भी जब तक उस की प्रतीति न हो तब तक वह सामानाधिकरण्य के व्यवहार का निमित्त हो नहीं सकती । प्रतीत न होने पर भी यदि उस आधेयतावाले अपोहों को व्यवहार का निमित्त मानेंगे तो वन्ध्यापुत्र अप्रतीत होने पर भी अथवा विद्यमान अप्रतीत किसी अन्य वस्तु को भी, व्यवहार निमित्त मानने की आपत्ति हो सकेगी।
यदि कहें कि - व्यावृत्ति (=अपोह) नहीं किन्तु व्यावृत्तिवाला अर्थ शब्दवाच्य है - तो यहाँ भी सामानाधिकरण्य
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org