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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ "न हि तत् केवलं नीलं न च केवलमुत्पलम् । समुदायाभिधेयत्वात्" [ ] इत्यादिना प्रतिपादितम् । यतः अनीलत्वव्युदासेऽनुत्पलत्वव्युदासो नास्ति, नाप्यनुत्पलप्रच्युतावनीलव्युदास इति नानयोः परस्परमाधाराधेयसम्बन्धोऽस्ति नी(ल?)रूपत्वात्। न चाऽसति सम्बन्धे विशेषण-विशेष्यभावो युक्तः अतिप्रसङ्गात्, अतो युष्मन्मतेनाभाववाचित्वाच्छबलार्थाभिधायित्वासम्भवान विशेषण-विशेष्यभावो युक्तः । अभिधेयद्वारेणैव हि तदभिधायिनोः शब्दयोर्विशेषणविशेष्यभाव उपचर्यते, अभिधेये च तस्याऽसम्भवेऽभिधानेऽपि कुतस्तदारोपः ? सामानाधिकरण्यमपि नीलोत्पलशब्दयोर्न सम्भवति, तद्वाच्ययोरनीलानुत्पलव्यवच्छेदलक्षणयोरपोहयोर्भिन्नत्वात् । तच्च भवद्भिरेव 'अपोह्यभेदाद् भिन्नार्था'...(पृ. ६४ पं. ४) इत्यभिधानादवसीयते । और 'उत्पल' का उत्पलत्व) भिन्न भिन्न हो ऐसे दो शब्द समास में प्रयुक्त हो कर एक ही विशिष्ट अर्थ में वाच्यत्वसम्बन्ध से वृत्ति हो और यह सिर्फ वृत्ति में ही होता है । समास, तद्धित आदि को वृत्ति कहते हैं । 'नीलोत्पल' समास के द्वारा नील पद भी विशेषणविधया उसी का वाचक है जिस का 'उत्पल' शब्द से निदर्शन होता है। नीलोत्पल आदि शब्द तो चित्र-विचित्र अर्थ के निरूपक हैं - उन में सामानाधिकरण्य बौद्ध के मत से संभवित नहीं है। 'न हि तत्.....इत्यादि कारिका से इतना तो स्पष्ट है कि नीलोत्पलादि शब्द संकीर्ण अर्थ के वाचक हैं जैसे कि कारिका में कहा है कि "केवल 'नील' नीलोत्पलशब्द का अभिधेय नहीं है, केवल 'उत्पल' (=कमल) भी वैसा नहीं है किन्तु उन का समुदाय नीलोत्पल शब्द का अभिधेय है।" इस प्रकार जो संकीर्ण अर्थ प्रतिपादक शब्द है उनमें सामानाधिकरण्य अपोहवाद में नहीं घट सकता क्योंकि सामानाधिकरण्य के लिये दोनों शब्द एक ही अर्थ के निरूपक होने चाहिये - वह अपोहवाद में शक्य नहीं है। कारण, नील शब्द अनील का व्युदास करेगा लेकिन सभी अनुत्पल अनील नहीं होते जिससे कि नीलशब्द से अनीलव्युदास के साथ सभी अनुत्पल का भी व्युदास हो जाय । इसी तरह अनील सभी अनुत्पल रूप नहीं होते, अत एव उत्पल शब्द से अनुत्पल के व्यवच्छेद के साथ सभी अनील का व्युदास शक्य नहीं है - इस का अर्थ यह हुआ कि नील और उत्पल शब्द एकार्थवृत्ति नहीं बन सकते । तथा, उनमें कोई आधाराधेयभावरूप सम्बन्ध भी घट नहीं सकता क्योंकि अनुत्पलापोह और अनीलापोह नीरूप = तुच्छ है, तुच्छ में कोई सम्बन्ध संभवता नहीं। जब अपोहों में किसी सम्बन्ध का ही संभव नहीं है तो विशेषण-विशेष्य भाव कैसे घटेगा ? वह भी तो एक सम्बन्ध है जो वस्तु-वस्तु के बीच हो सकता है। प्रतिपादक माने जाने वाले शब्दों में जो विशेषण-विशेष्यभाव कहा जाता है वह तो उन के प्रतिपाद्य अर्थों में रहे हुए विशेषण-विशेष्य भाव का वहाँ उपचार कर के कहा जाता है। किन्तु अपोहवाद में जब प्रतिपाद्य अर्थों में ही विशेषणादि भाव घट नहीं सकता तो प्रतिपादक शब्दों में उस के उपचार आरोप की बात ही कहाँ ? ★नीलोत्पल शब्द में सामानाधिकरण्य असंभव ★ तथा अपोहवाद में नील और अपोह शब्दों का सामानाधिकरण्य भी घटता नहीं । कारण, नील शब्द का वाच्य अनीलापोह और उत्पल शब्द का वाच्य अनुत्पलापोह है जो सर्वथा अपोहवाद में एक अर्थरूप नहीं किन्तु भिन्न भिन्न है, सामानाधिकरण्य के लिये एकार्थवृत्तिता होनी चाहिये । अपोहवादी ने ही कहा है कि "अपोह्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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