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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
विधिनिवृत्तिलक्षणत्वाद् व्यतिरेकस्येति भावः ।
किंच, नीलोत्पलादिशब्दानां विशेषण-विशेष्यभावः समानाधिकरण्यं च यदेतल्लोकप्रतीतं तस्याडपह्नवोऽपोहवादिनः प्रसक्तः । यच्चेदं विशेषण-विशेष्यभावसामानाधिकरण्यसमर्थनार्थमुच्यते -
अपोह्यभेदाद् भिन्नार्था स्वार्थभेदगतौ जडा । एकत्वा(?त्रा)ऽभिन्नकार्यत्वाद् विशेषण-विशेष्यता ॥ तन्मात्राकांक्षणाद् भेदः स्वसामान्येन नोज्झितः । नोपात्तः संशयोत्पत्तेः सैव चैकार्थता तयोः ॥
तदप्यनुपपन्नम्, यतः परस्परं व्यवच्छेदा(य)व्यवच्छेदकभावो विशेषण-विशेष्यभावः, स च बाहा(वाक्य) एव व्यवस्थाप्यते यथा 'नीलो(नीलमु)त्पलम्' इति । (तथा) व्यधिकरणयोरपि यथा 'राज्ञः पुरुषः' इत्यादौ । भित्रनिमित्तप्रयुक्तयोस्तु शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम्, तच्च 'नीलोत्पलम्' इत्यादौ वृत्तावेव व्यवस्थाप्यते । न च नीलोत्पलादिशब्देषु शबलार्थाभिधायिषु तत्सिद्धिः, शबलार्थाभिधायित्वं च तेषाम्
"जिसे विधिरूप शब्दार्थ अमान्य है वह व्यतिरेकरूप शब्दार्थ भी नहीं मान सकता क्योंकि व्यतिरेक तत्पूर्वक ही शक्य होता है ।" तत्पूर्वक यानी विधिरूपपूर्वक । मतलब व्यतिरेक विधि का ही निषेधरूप होता है। विधि का अपलाप करने पर किस के निषेध को व्यतिरेक बतलायेंगे ?
★ विशेषण-विशेष्यभाव, सामानाधिकरण्य की अनुपपत्ति ★ और एक बात यह है कि - लोकप्रसिद्ध जो नील और उत्पल आदि शब्दों में विशेषण-विशेष्यभाव और सामानाधिकरण्य (यानी दोनों पद की समानविभक्ति अथवा मिल कर एकार्थ की बोधकता) है, अपोहवादी को उस के अपलाप का दोष सिर पर आयेगा । उन्होंने विशेषण-विशेष्यभाव और सामानाधिकरण्य की उपपत्ति के लिये जो यह कहा है कि -
"विशेषण-विशेष्यवाचक पद अपने अपने अपोह्य के भेद से भिन्न भिन्न अर्थवाले होते हैं, फिर भी मिलकर एक अभिन्न अपोहात्मक अर्थ का प्रकाशन कार्य करते हैं इस लिये तब अपने अपने भिन्न भिन्न अपोहात्मक अर्थ के प्रकाशन में उदासीन हो जाते हैं - यही विशेषण-विशेष्य भाव है; क्योंकि वहाँ उस अभिन्न अपोहमात्र अर्थ प्रकाशन की आकांक्षा होती है । अत: अपने अपने सामान्यभूत (भिन्न भिन्न अपोह) से जो भेद रहता है उस का संशयोत्पत्ति के कारण न तो ग्रहण होता है न त्याग । यही उन की एकार्थता (सामानाधिकरण्य) है"
___- वह ठीक नहीं है - विशेषणविशेष्यभाव का मतलब है एक-दूसरे का व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदक होना । जैसे 'नील' शब्द श्वेतादि उत्पलों का व्यवच्छेदक है और 'उत्पल' शब्द नीलवर्ण वाले मषी आदि का व्यवच्छेदक है - दोनों एक-दूसरे के व्यवच्छेदक एवं व्यवच्छेद्य हैं । यह विशेषण-विशेष्यभाव शुद्ध पद में तो शक्य नहीं है जब वे वाक्य के अंग बन जाय तभी होता है जैसे कि "यह नील कमल है' इस वाक्य में नील-कमल यहाँ तो समानाधिकरण पद है लेकिन व्यधिकरण (=भिन्न विभक्ति वाले) पदों में भी (जब कि वे वाक्यान्तर्गत हो तब) विशेषण-विशेष्यभाव होता है - जैसे "यह राजा का पुरुष है' यहाँ 'राजा का' यह षष्ठीअन्त पद 'राजकीय' - राजसम्बन्धि इस अर्थ में प्रथमान्त 'पुरुष' पद का विशेषण है।
सामानाधिकरण्य का अर्थ यह है कि - जिन दो शब्दों का प्रवृत्तिनिमित्त ('नील' का नीलरूपवत्त्व X. 'तमात्रा' इति तत्त्वसंग्रह श्लो० ९६६ - पंजिकायाम् । तयोः = विशेषण-विशेष्यकयो: शाब्दयोरित्यर्थः ॥
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