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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ साम्प्रतं वाच्य-वाचकत्वाभावप्रसंगापादनादभ्युपेतबाधादिदोषं प्रतिपिपादयिषुः प्रमाणयति - ये अवस्तुनी न तयोर्गम्य-गमकत्वमस्ति यथा खपुष्प-शशशृंगयोः, अवस्तुनी च वाच्य-वाचकापोहौ भवतामिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । ननु च मेघाभावाद् वृष्टयभावप्रतीतेर्हेतोरनैकान्तिकता । अयुक्तमेतत्; यस्मात् तद्विविक्ताकाशाऽऽलोकात्मकं च वस्तु मत्पक्षेत्रापि प्रयोगेऽस्त्येव, अभावस्य वस्तुत्वप्रतिपादनात् । भवत्पक्षे तु न केवलमपोहयोर्विवादास्पदीभूतयोर्गम्यगमकत्वं न युक्तम् अपि त्वेतदपि वृष्टिमेघाभावयोर्गम्यगमकत्वमयुक्तमेव ।
किंच, यदेतद् भवद्भिरन्वयोपसर्जनयोर्व्यतिरेकप्रधानयोः स्वविषयप्रतिपादकत्वं शब्द-लिंगयोर्वर्ण्यते, यच्च।
"अदृष्टेरन्यशब्दार्थे स्वार्थस्यांशेऽपि दर्शनात् । श्रुतेः सम्बन्धसौकर्य न चास्ति व्यभिचारिता॥"[ ] इत्यादि वर्णितम् तदप्यपोहाभ्युपगमेऽसंगतम् । यतः [श्लो० वा. अपो० - ११०] “विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते । न भवेद् व्यतिरेकोऽपि तस्य तत्पूर्वको ह्यसौ" ॥
उपरोक्त रीति से वाच्य-वाचक भाव की अभाव प्रसक्ति के आपादन से बौद्धमत में होनेवाले बाधादि दोषों का निरूपण करने के लिये अनुमान प्रमाण का प्रयोग इस प्रकार है -- “जो (वाचकापोह और वाच्यापोह) वस्तुरूप नहीं है उन में गम्य-गमक भाव नहीं होता, जैसे गगनपुष्प और शशविषाण में । आप के अभिमत वाच्यापोह और वाचकापोह वस्तुरूप नहीं है ।" बौद्ध को अपोहयुगल में जो गम्य-गमक भाव अभिमत है उसका ध्यापक है वस्तुत्व । उस के विरोधी वस्तुत्व की यहाँ अपोहयुगल में उपलब्धि है-वह व्यापकरूप वस्तुत्व की उपलब्धि की निवर्तक होने से गम्य-गमकभाव की भी निवृत्ति सिद्ध करती है।
__ अपोहवादी : अवस्तुरूप होने पर भी मेघाभाव और वृष्टिके अभाव में क्रमश: गमक-गम्य भाव होता है इसलिये आप का अवस्तुत्व हेतु अनैकान्तिक (=साध्यद्रोही) ठहरेगा।
__सामान्यवादी : यह बात गलत है । कारण, हमारे मत में तो मेघरहित जो गगन या आलोक रूप वस्तु है वही मेघाभाव और वृष्टि-अभाव रूप है अर्थात् अभाव हमारे मत में अधिकरण वस्तुरूप ही है । इसलिये हमारे पक्ष में मेघाभाव से वृष्टि-अभाव साधक प्रयोग में वस्तु ही वस्तु का गमक है, अवस्तु अवस्तु का गमक नहीं है। आप के पक्ष में एक संकट तो यह है ही कि विवादग्रस्त अपोह-अपोह में गम्य-गमकत्व घटित नहीं होता, दूसरा संकट यह आपने ही याद कराया कि वृष्टिअभाव और मेघाभाव में भी गम्य-गमकभाव नहीं घटेगा, क्योंकि आप अभाव को तुच्छ = अवस्तुरूप मानते हैं । __तथा अन्वय (=विधिरूप) को गौण कर के व्यतिरेक (=व्यावृत्तिस्वरूप) को प्रधानता देकर जो आपने शब्द और लिंग में अपने अपने विषय की सूचकता दिखायी है - तथा,
“अन्य शब्दार्थ के न देखने से [अर्थात् गो से अन्य अश्वादि के लिये गोशब्दप्रयोग और गो के लिये अन्य अश्वादिशब्दों का प्रयोग न दिखाई देने से] एवं अपने (गोशब्द के) अर्थभूत गो के अंश(भूत अन्यापोह) के लिये (गो)शब्द का प्रयोग दिखाई देने से शब्द का (अर्थ के साथ) सम्बन्ध विना कठिनाई के गृहीत होता है, कोई व्यभिचारिता नहीं है"
ऐसा जो आपने कहा है वह भी अपोहवाद में संगत नहीं हो सकता । कारण, (जैसा कि श्लो० वा. में कहा है)
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