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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् पवाचिनां च परस्परतो भेदो वासनाभेदनिमित्तो वा स्यात् वाच्यापोहभेदनिमित्तो वा ? ननु प्रत्यक्षत एव शब्दानां कारणभेदात् विरुद्धधर्माध्यासाच्च भेदः प्रसिद्ध एवेति प्रश्नानुपपत्तिः । असदेतत् यतो वाचकं शब्दमङ्गीकृत्य प्रश्नः । न च श्रोत्रज्ञानावसेयः स्वलक्षणात्मा शब्दो वाचकः, संकेतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनष्टत्वात् तस्य, न तेन व्यवहार इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण, अविवादश्चात्र । यथोक्तम् -
"नार्थशब्दविशेषस्य वाच्यवाचकतेष्यते । तस्य पूर्वमदृष्टत्वात् सामान्यं तूपदेक्ष्यते ॥"[ ] तस्मात् वाचकं शब्दमधिकृत्य प्रश्नकरणाददोषः ।
"तत्र शब्दान्तरापोहे सामान्य परिकल्पिते । तथैवावस्तुरूपत्वाच्छब्दभेदो न कल्प्यते ॥ श्लो. वा० अपोह. १०४]
यथा पूर्वोक्तेन विधिना 'संसृष्टैकत्वनानात्व' - (पृ. ४८ पं.४) इत्यादिना वाच्यापोहानां परस्परतो भेदो न घटते तथा शब्दापोहानामपि नीरूपत्वानासौ युक्तः । यथा च वाचकानां परस्परतो भेदो न संगच्छते एवं वाच्यवाचकयोरपि मिथो भेदोऽनुपपत्रः, निःस्वभावत्वात् । न चापोहाभेदाद् भेदो भविष्यति 'न विशेषः स्वतस्तस्य' इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् । तदेवं प्रतिज्ञायाः प्रतीत्यभ्युपेतबाधा व्यवस्थिता । है। फिर भी वाचक शब्द के ऊपर कुछ विचारणा कर ले - गोत्व-अश्वत्व आदि भिन्न भिन्न सामान्य के वाचक
और गगनादि व्यक्ति विशेष के वाचक शब्दों में भेद तो सिद्ध ही है। [सभी शब्द सभी अर्थ के वाचक नहीं हैं 1] यहाँ अपोहवादी इस शब्दभेद को वासनाभेदमूलक मानता है या वाच्य अपोहों के भेद के कारण ?
___ अपोहवादी : शब्दों में अपने अपने प्रयत्नादि कारणों के भेद से और कत्व-खत्वादि विरुद्धधर्मों का अध्यास होने से, प्रत्यक्ष से ही भेद सिद्ध है इसलिये उक्त प्रश्न निरवकाश है।
सामान्यवादी : आप की बात गलत है, क्योंकि हम प्रत्यक्षसिद्ध भेद वाले शब्द के लिये प्रश्न नहीं उठाते किन्तु जिन को (अगोशब्दापोहादि को) आप अपोह के वाचक मानते हैं उन शब्दों के लिये हमारा प्रभ है। [ये दोनों एक नहीं है, कारण] जो श्रोत्रजन्यप्रत्यक्ष से सिद्ध स्वलक्षणात्मक शब्द है उस को तो आप वाचक मान ही नहीं सकते, क्योंकि संकेतकाल में जिस शब्द का प्रत्यक्ष किया है वह चिरविनष्ट होने से व्यवहारकाल में मौजुद ही नहीं है तो उस (प्रत्यक्षीकृत) शब्दस्वलक्षण से वाच्यार्थों का व्यवहार अशक्य है इस लिये स्वलक्षणरूप शब्दों को वाचक नहीं मान सकते - इस बात में कोई विवाद नहीं है । कहा भी है कि
"अर्थविशेष और शब्दविशेष के बीच वाच्य-वाचकभाव जचता नहीं, क्योंकि वे दोनों पहले (संकेतकाल में) अज्ञात थे । इसलिये दोनों के सामान्य में वह कहा जाता है ।"[ ]
इसलिये वाचक शब्द को लेकर पूर्वोक्त प्रश्न करने में कोई दोष नहीं है । “अब सामान्य को यदि वाचक मानेंगे तो वह तो आप के मत से अपोहरूप है इस लिये अगोशब्दापोह को ही वाचक मानना होगा । तब तो वाचक की तरह वस्तुरूप न होने के कारण वाचकरूप से अभिमत अपोहात्मक शब्दों में भेदकल्पना अशक्य हो जायेगी ।" तात्पर्य, पहले बताये हुये ढंग से - अवस्तु में संसृष्टत्व-एकत्व या पृथक्त्व आदि संगत न होने से वाच्यापोह में परस्पर भेद संगत नहीं - इसी प्रकार वाचक शब्दापोह में भी परस्पर भेद घट नहीं सकेगा क्योंकि अपोहरूप होने से स्वभावशून्य है । इस प्रकार 'अपोह ही शब्दार्थ है' इस प्रतिज्ञा में प्रतीतिबाध और स्वमान्यताविरोध स्पष्ट है।
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