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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
४८ पं० ४) च - 'न खल्वपोह्यभेदादाधारभेदाद् वाऽपोहानां भेदः, अपि त्वनादिकालप्रवृत्तविचित्रवितयार्थविकल्पवासनाभेदान्वयैस्तत्त्वतो निर्विषयैरप्यभिन्न विषयालम्बिभिभिरिव प्रत्ययैर्भिन्नेष्वर्थेषु बाह्येषु भिन्ना इवात्मान इवाऽस्वभावा अप्यपोहाः समारोप्यन्ते । ते चैवं तथा तैः समारोपिताः भिन्नाः सन्तश्च प्रतिभासन्ते येन वासनाभेदाद् भेदः सद्रूपता वाऽपोहानां भविष्यति' - इत्ययं परिहारो वक्तुं युक्तः, यतो न वस्तुनि वासना सम्भवति, वासनाहेतोनिर्विषयप्रत्ययस्याऽयोगात्, तदभावाद् वितयार्थानां विकल्पानामसंभवात् आलम्बनभूते वस्तुन्यसति निर्विषयज्ञानाऽयोगेन वासनाधायकविज्ञानाभावतो न वासना, ततश्च वासनाऽभावात् कुतो वासनाकृतोऽपोहानां भेदः सद्रूपता वा ? अतो वाच्याभिमतापोहाभावः ।
तथा वाचकाभिमतस्यापि तस्याभाव एव । तथापि(?थाहि) शब्दानां भिन्नसामान्यवाचिनां विशेभाव की सिद्धि होने पर अभाव की सिद्धि-अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा । कारण, असत्त्व सत्त्वव्यवच्छेदरूप है और सत्त्व की सिद्धि उपरोक्त रीति से अभाव वस्तुरूप हो जाने पर संभव नहीं है ।
★ वासनाभेद अपोहभेद का प्रयोजक होना असम्भव ★ अपोहवादी : अपोह का खंडन करते हुए जो आपने कहा था [पृ० ४९-१४] की 'बहिरंगभूत अपोह्यों के भेद से अपोहों का भेद नहीं हो सकता' तथा यह जो कहा था कि (पृ.४८-२१) 'अपोह वस्तुरूप न होने से उन में भेद नहीं हो सकता' - इस के सामने हमारा कहना यह है कि हम अपोह्य (अश्वादि) के भेद से या आश्रयभेद से अपोहों का भेद नहीं मानते किन्तु वासनाभेद से मानते हैं । देखिये - परस्परव्यावृत्त अर्थों में अनुगत कोई वस्तु नहीं होती । फिर भी अनादिकाल से अवस्तुरूप अनुगत असदर्थविषयक विकल्प होता आया है और उन विकल्पों से वैसी वासना भी होती आयी है । इन वासनाओं के भेद का, उन से होने वाली प्रतीतियों में भी अन्वय होता है । फलत: वास्तव में निर्विषयक होने पर भी उन प्रतीतियों में भिन्नविषयावलम्बिता भासित होती है । इस प्रकार वासनाजन्य प्रतीतियों के द्वारा गो-अश्व आदि बाह्य अर्थों में नि:स्वभाव होने पर भी अपोहों का ऐसा आरोपात्मक भान होता है कि वे भिन्न हैं और मानों कि अर्थरूप वास्तव ही हैं। इस तरह आरोपात्मक भान में वे (अपोह) भिन्न भिन्न और 'सत्' रूप भासित होते हैं । इसलिये वासनाभेद के प्रभाव से अपोहों में भिन्नता और काल्पनिक ‘सद्रूपता' हो सकती है।
सामान्यवादी : यह समाधान बोलने जैसा भी नहीं है । कारण, जो अवस्तुरूप है उस के विषय में किसी को भी कोई वासना नहीं होती । समानविषयक प्रतीति से समानविषयक वासना के जन्म का नियम है । जब इस प्रकार निर्विषयक वासना का सम्भव नहीं है तो उससे असदर्थविषयक विकल्पों के जन्म की तो बात ही कहाँ ? विषयभूत वस्तु के न होने पर निर्विषयकज्ञानोत्पत्ति का सम्भव न होने से, वासना का आधान करने वाले विज्ञान के अभाव में वासना का जन्म असम्भव है। जब इस प्रकार वासना का सम्भव नहीं है तो उस के भेद से अपोहों में भिन्नता और सद्रूपता भी कैसे हो सकती है ? निष्कर्ष : वाच्यरूप से अभिमत अपोह असिद्ध है।
★ अपोह के वाचक अपोहात्मक शब्द का अभाव ★ जब वाच्यरूप से अपोह की सिद्धि नहीं है तब उस के वाचकरूप में शब्द की सिद्धि भी शक्य नहीं *. 'तवापि' इति लिम्बडी ज्ञानकोशादर्श ।
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