________________
६०
श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
भावो गोशब्दाभिधेयः । स चेत् पूर्वोक्तादभावाद् विलक्षणस्तदा भाव एव भवेत् अभावनिवृत्तिरूपत्वाद् भावस्य । न चेद् विलक्षणस्तदा गौरप्यगौः प्रसज्येत तदवैलक्षण्येन तादात्म्यप्रतिपत्तेः । स्यात् गवाश्वादिशब्दैः स्वलक्षणान्येव परस्परतो व्यावृत्तान्यपोह्यन्ते नाभावः, तेनाऽपोह्यत्वेन वस्तुत्वप्रसङ्गापादनं नानिष्टम् । असदेतत् - यद्यपि सच्छब्दादन्येषु गवादिशब्देषु वस्तुनः पर्वतादेरपोह्यता सिध्यति, सच्छब्दस्य त्वभावाख्यादपोह्यान्नान्यदपोह्यमस्ति असद्व्यवच्छेदेन सच्छब्दस्य प्रवृत्तत्वात् ततश्च पूर्ववदभावाभाववर्जनाद् असतोऽपोहे वस्तुत्वमेव स्याद् इत्यपोहवादिनोऽभ्युपगमविरुद्धाऽसद्वस्तुत्वप्रसक्तिः ।
अथा' स्वभावस्यापि वस्तुत्वम् ।' न, अभावस्यापिसि (स्याऽसि ) द्धौ कस्यचिद् भावस्यैवाऽसिद्धेः, अभावव्यवच्छेदेन तस्य भवन्मतेन स्थितलक्षणत्वात् । अभावस्य वाऽपोह्यत्वे सति वस्तुत्वप्रसंगेन स्वरूपासिद्धेरसत्त्वमपि न सिध्यति तस्य सत्त्वव्यवच्छेदरूपत्वात् सत्त्वस्य च यथोक्तेन प्रकारेणाऽयोगात् । न चात्र " अपोह्यैः स बहिः संस्थितैर्भियते"" इत्यादौ " अवस्तुत्वादपोहानां नैव भेदः" इत्यादौ ( पृ० में गोशब्द से वाच्य अभाव का अपोह गो-शब्द का वाच्यार्थ बनेगा । अब यह गोशब्दवाच्य अभाव यदि अगोशब्दवाच्य अभाव से विलक्षण होगा तो गोशब्दवाच्य अपोह भावरूप मानना पडेगा क्योंकि अभाव की निवृत्ति ( अर्थात् गोअपोह का अपोह) भावस्वरूप होना न्यायप्राप्त है । अविलक्षण पक्ष में तो गौ और अगौ एक बन जाने की विपदा होगी । कारण, अगोशब्दवाच्य गोअपोह और उसका अपोह जो कि गोशब्दवाच्य है दोनों अविलक्षण - पक्ष में अभिन्न होने से तादात्म्यापन हो जाते हैं, इसलिये गोशब्दवाच्य और अगोशब्दवाच्य में कोई भेद नहीं रहता ।
यदि मन में ऐसा हो कि - " गो- अश्वादि शब्दों के द्वारा अभावों का अपोह नहीं होता किन्तु परस्पर व्यावृत्त गो- अश्वादि स्वलक्षणों का ही अपोह किया जाता है । [ गो शब्द अश्वात्मक स्वलक्षण का और अश्वशब्द से गोस्वलक्षण का अपोह होता है] इस लिये आपने जो पहले अपोह विषय में वस्तुत्व प्रसक्त होने की विपदा बतायी थी वह कोई अनिष्टरूप है नहीं ।" तो यह गलत है । हालाँकि 'सत्' शब्द को छोड कर दूसरे गो- अश्वादिशब्दों के द्वारा एक दूसरे वस्तु को अपोह का विषय मानना ठीक है, तथापि 'सत्' शब्द के द्वारा अपोह का विषय अभाव को छोड कर और तो कोई स्वलक्षण है नहीं, क्योंकि असत् के ही व्यवच्छेदरूप में 'सत्' शब्द की प्रवृत्ति होती है । फलतः 'सत्' शब्द से असत् का अपोह मानना होगा जैसे कि पहले 'अभावाभाववर्जनात्' इस वाक्य से दिखाया गया है । जब असत् का अपोह मानेंगे तो अपोह का विषय होने से असत् में वस्तुत्व की प्रसक्ति होगी जो अपोहवादी के मत से स्पष्ट विरुद्ध है ।
★ अभाव को वस्तुरूप मानने पर अन्योन्याश्रय ★
यदि कहें कि 'अभाव को हम वस्तुरूप ही मान लेगें" तो यहाँ अन्योन्याश्रय दोष इस प्रकार है कि अभाव को वस्तुरूप मानने से उस को 'सत्' रूप अर्थात् भावरूप ही मानना पडेगा । फलतः अभाव की अभावरूप से सर्वथा असिद्धि हो जायेगी । जब अभाव असिद्ध हो जायेगा तो किसी भी भाव की सिद्धि भी नहीं हो सकेगी क्योंकि आप के मत से अभावव्यवच्छेद द्वारा ही भाव की स्थिति होती है । अपोह का विषय मानने पर अभाव वस्तुत्व की आपत्ति होने से अभाव अपने निषेधस्वरूप को खो बैठेगा । फलत: किसी असत्त्व (= अभाव ) की भी सिद्धि न हो सकेगी । इस प्रकार अभाव की सिद्धि होने पर भाव की सिद्धि और *. 'इत्यपि साहसम्' इति शेष: दृष्टव्य पृ० ४९ ३ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org