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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
विप्रतिषिद्धं भवेत्। प्रतिषेधे च सति अभावैरभावरूपत्वं त्यक्तं स्यात्। ततथाऽभावानामपोहलक्षणानामभावरूपत्यागाद् वस्तुत्वमेव भवेत्, तच्च न शब्दविषयः । यद्वाऽभावानामभावाभावात् न ह्यभावस्वभावा अपोहा अपोह्या युज्यन्ते, वस्तुविषयत्वात् प्रतिषेधस्य । तस्मादश्चादौ गवादेरपोहो भवन् सामान्यस्यैवेति निश्चीयते इति सिद्धमपोहयत्वाद् वस्तुत्वं सामान्यस्य । तदुक्तम् - [श्लो. वा० अपो० ९५-९६]
यदा वा शब्दवाच्यत्वान व्यक्तिनामपोह्यता । तदाऽपोहोत सामान्यं तस्यापोहाच्च वस्तुता ॥ नापोह्यत्वमभावानामभावाभाववर्जनात् । व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः ॥
अपि च, अपोहानां परस्परतो वैलक्षण्यमवैलक्षण्यं वा ? तत्राये पक्षेऽभावस्यागोशब्दस्याभिधेयस्यासकता है ? [बौद्ध तो मानता है कि शब्द से विकल्प होता है और विकल्प का विषय सामान्य होता है] फलत: व्यक्ति को छोड़ कर जाति का ही अपोह मानना होगा क्योंकि वह शब्दवाच्य होती है। [यदि कहें कि सामान्य भले अपोह माना जाय किन्तु इतने मात्र से वह सामान्य 'वस्तुरूप' होने की सिद्धि कैसे हुई ? तो इसका उत्तर यह है कि-] यदि उस सामान्य को वस्तुरूप न मान कर अपोहरूप मानेंगे तो उस का अपोह (निषेध) शक्य ही नहीं रहेगा क्योंकि अपोह स्वयं ही निषेधरूप होने से उसका अपोह (=निषेध) सम्भवित ही नहीं है । यदि उस का निषेध सम्भव मानेंगे तो अभावरूप अपोह का अपोह करने पर उसकी भावरूपता यानी वस्तुरूपता स्वत: सिद्ध हो जायेगी । तात्पर्य यह है कि 'गो' शब्द से अगो (अश्व) का अपोह करना है और 'अगो' यदि अश्वत्वादिरूप न मान कर गो-अपोह रूप मानेंगे तो उस अपोह का अपोह करने से गोत्व रूप वस्तु ही 'गो' शब्द की वाच्य सिद्ध होगी क्योंकि अभाव का अभाव वस्तुरूप होता है । देखिये - अपोह को जब आप अपोह का विषय बनाते हैं तब अपोह की अभावरूपता का ही निषेध कर रहे हैं और निषेध करने पर अपोह की अभावरूपता का त्याग होगा । फलत: अभावस्वरूप अपोहों की अभावरूपता के त्याग से वस्तुरूपता सिद्ध होगी और यदि उसे व्यक्तिरूप मानेंगे तो वह शब्द का विषय नहीं है इस लिये उस वस्तु को सामान्य (जाति)रूप मानना पडेगा । इस प्रकार सामान्य की वस्तुरूपता सिद्ध होगी।
['अथवा' कर के अब अन्य विद्वानों का अभिप्राय दिखाते हैं ।]
अथवा सामान्य वस्तुभूत इस लिये सिद्ध होता है कि अभावों का अभाव नहीं होता । मतलब अभावरूप स्वभाव जिन का हो उन का अपोह (निषेध) युक्त नहीं है क्योंकि निषेध सर्वदा वस्तु को ही विषय करता है । इसलिये अश्वादि में जो गोआदि का अपोह (निषेध) होगा वह गोत्व आदि रूप सामान्य का ही सिद्ध होता है । जैसे कि कुमारिलने कहा है -
“जब व्यक्तियाँ शब्दवाच्य न होने से अपोह का विषय सिद्ध नहीं होती, तो सिद्ध होता है कि 'अपोह का विषय सामान्य होता है और उसमें रही हुई अपोहविषयता ही उस की वस्तुरूपता को ध्वनित करती है।" (अपोह विषयता से वस्तुत्व कैसे ? उत्तर:-) अभाव की अभावरूपता का भंग होने के अतिप्रसंग से अपोह का विषय अभावात्मक नहीं हो सकता । इसलिये (अगोरूप) एक अपोह का अपोह करना हो तो अन्य वस्तुभूत (अश्वत्वादि) सामान्य को ही अपोहविषय मानना होगा।"
★ अपोहों में परस्पर वैलक्षण्य-अवैलक्षण्य विकल्प ★ यह भी अपोहवादी को प्रश्न है कि अपोह एकदूसरे से विलक्षण होते हैं या नहीं होते ? विलक्षण-पक्ष
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