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________________ ५६ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् भवति । किं तर्हि ? ज्ञातं सद् यत् स्वाकारानुरक्तया बुद्ध्या विशेष्यं रञ्जयति तद् विशेषणम् । न चापोहेऽयं प्रकारः सम्भवति । न ह्यश्वादिबुद्धयाऽपोहोऽध्यवसीयते, किं तर्हि ? वस्त्वेव, अतोऽपोहस्य बोधाऽसम्भवाद् न तेन स्वबुद्धया रज्यते अश्वादि । न चाऽज्ञातोऽप्यपोहो विशेषणं भवति । न ह्यगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायमाना दृष्टा । भवतु वाऽपोहज्ञानम् तथापि वस्तुनि तदाकारबुद्ध्यभावात् तस्य तद्विशेषणत्वमयुक्तम् । सर्वमेव हि विशेषणं स्वाकारानुरूपां विशेष्ये बुद्धिं जनयद् दृष्टम् न त्वन्यादृशं विशेषणमन्यादृशीं बुद्धिं विशेष्ये जनयति । न हि नीलमुत्पले 'रक्तम्' इति प्रत्ययमुत्पादयति दण्डो ar 'कुण्डली' इति । न चात्राश्वादिष्वभावानुरक्ता शाब्दी बुद्धिरुपजायते, किं तर्हि ? भावाकाराध्यवसायिनी । यदि पुनर्विशेषणाननुरूपतयाऽन्यथा व्यवस्थितेऽपि विशेष्ये साध्वी विशेषणकल्पना तथा सर्वमेव नीलादि सर्वस्य विशेषणमित्यव्यवस्था स्यात् । नाप्यपोहेनापि स्वबुद्ध्या विशेष्यं वस्त्वनुरज्यत इति वक्तव्यम्, तथाभ्युपगमेऽभावरूपेण वस्तुनः प्रतीतेर्वस्तुत्वमेव न स्यात् भावाभावयोर्विरोधात् । नहीं होती । ऐसा नहीं है कि नीलादि सत् है इतने मात्र से उत्पलादि का विशेषण हो जाय । तो ? " ज्ञात होते हुये जो अपने आकार से अनुरक्त बुद्धि के द्वारा विशेष्य को उपरञ्जित करे" अर्थात् विशेष्यनिष्ठप्रत्यासत्ति से विशेष्यों में जो स्वप्रकारक बुद्धि को उत्पन्न करे वही विशेषण कहा जाता है । अपोह में यह बात सम्भवित नहीं हैं क्योंकि अश्वादि को देखते हैं तब अपोह का कुछ भी भान नहीं होता । ( उस की गन्ध भी नहीं आती 1) तो किसका भान होता है ? अश्वादि वस्तु का । इस लिये अपोह का भान उस वक्त न होने से, अपोह अपनी बुद्धि के माध्यम से अश्वादि को उपरञ्जित नहीं कर सकता । फलत: अश्वादिबुद्धिकाल में अज्ञात अपोह अश्वादि का विशेषण नहीं हो सकता । यह प्रसिद्ध है कि विशेषण अगृहीत रहने पर विशेष्य में (अर्थात् अश्वादि की विशेष्यरूप में) बुद्धि उत्पन्न होती नहीं दीखाई देती । इस लिये अपोह और अश्वादि का विशेषण- विशेष्यरूप से भान संभवित नहीं है । यदि कहें कि - 'अपोह का सर्वथा भान नहीं होता ऐसा तो नहीं है अपोह की प्रतीति होती है' तो भी अश्वादि वस्तु में अपोहाकार (यानी अपोहप्रकारक) बुद्धि न होने से अपोह को विशेषण मानना अयुक्त है । स्पष्ट दीखता है कि जो कोई विशेषण होता है वह अवश्य विशेष्य में (यानी अश्वादिविशेष्यक) अपने आकार के अनुरूप (यानी स्वप्रकारक ) बुद्धि को उत्पन्न करता है । ( तभी तो वह विशेषण कहा जाता है ।) विशेषण कुछ ओर हो ओर विशेष्य में कुछ ओर आकार की बुद्धि उत्पन्न हो ऐसा कभी नहीं होता । कमल में 'नील' विशेषण कभी रक्ताकार प्रतीति को उत्पन्न करता नहीं है एवं दण्डात्मक विशेषण कभी 'यह कुंडली है ऐसी कुण्डली - आकार प्रतीति उत्पन्न नहीं करता है । इसी तरह अश्वादि पद के उच्चारण शाब्दबोध नहीं होता है, किन्तु विधिरूप भावाकार अश्व का ही बोध होता है । अभावाकार अश्वादि का ★ अननुरूप विशेषण होने की सम्भावना में क्षति ★ विशेष्य में (हंसादि में) न घट सके ऐसे (नीलादि) विशेषण के लिये वह विशेष्य अनुरूप यानी योग्य न होने पर भी अर्थात् निःशंकत: उस से विरुद्ध प्रकार के हि विशेषण से युक्त होने पर भी उस विशेष्य में अननुरूप विशेषण होने की कल्पना को युक्त माना जाय तब तो हर कोई नीलादि पदार्थ वस्तुमात्र का भले अननुरूप विशेषण हो सकेगा - फिर कैसे यह व्यवस्था रहेगी कि शुंग महिष का विशेषण है और अश्व का नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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