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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
वा० अपो० श्लो० ८५] । यस्य हि येन सह कश्चिद् वास्तवः सम्बन्धः सिद्धो भवेत् तत् तेन विशिष्टमिति युक्तं वक्तुम् । न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पलव्यवच्छेदरूपत्वेनाभावरूपयोराधाराधेयादिः सम्बन्धः सम्भवति, नीरूपत्वात् । आदिग्रहणेन संयोगसमवायैकार्थसमवायादिसम्बन्धग्रहणम् । न चासति वास्तवे सम्बन्धे तद्विशिष्टस्य प्रतिपत्तियुक्ता, अतिप्रसङ्गात् । अथापि स्यात् नैवास्माकमनीलादिव्यावृत्त्या विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोऽभिमतः यतोऽयं दोषः स्यात् किं तर्हि ! अनीलानुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथाव्यवस्थित तदर्थान्तरनिवृत्त्या विशिष्टं शब्देनोच्यत इत्ययमर्थोऽत्राभिप्रेतः । असदेतत् स्वलक्षणस्याऽवाच्यत्वात् तत्पक्षभाविदोषप्रसंगाच । न च स्वलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वं सिध्यति यतो न वस्त्वपोहः, असाधारणं तु वस्तु; न च वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्धो युक्तः, वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य ।।
भवतु वा सम्बन्धस्तथापि विशेषणत्वमपोहस्याऽयुक्तम् नहि सत्तामात्रेणोत्पलादीनां नीलादिविशेषणं उत्पल शब्दों के विशेषण-विशेष्यभाव की उपपत्ति करने के लिये जो कहा है कि- नील शब्द अनीलव्यावृत्ति का नही किन्तु अनीलव्यावृतिविशिष्ट अर्थ का वाचक है और उत्पल शब्द अनुत्पलव्यावृति का नहीं किन्तु अनुत्पलव्यावृत्तिविशिष्ट अर्थ का वाचक है। (ये दोनों वस्तुरूप होने से विशे०विशेष्यभाव घट सकेगा)" - यह भी युक्त नहीं है - इस बात का निर्देश करते हुए भट्ट कुमारिल कहता है कि - "दो अभावों के बीच आधाराधेयभाव आदि सम्बन्ध सम्भव नहीं है।" जिस के साथ जिस का पारमार्थिक सम्बन्ध सिद्ध हो वह उस से 'विशिष्ट' दिखाना युक्ति-युक्त है। अपोहवाद में नील और उत्पल पदों का अर्थ यदि अनीलव्यवच्छेद इष्ट हो तब तो वे दोनो अभावरूप-अवस्तुरूप होने से, उन में आधाराधेय आदि कोई सम्बन्ध सम्भवता नहीं, क्योंकि वे स्वभाव रहित है । 'आदि' शब्द का तात्पर्य यह है कि आधाराधेय की तरह संयोग समवाय या एकार्थ समवाय (एक अर्थ में समानाधिकरण्य) आदि कोई भी सम्बन्ध उनमें सम्भवित नहीं है । जहाँ तक सम्बन्ध वास्तविक न हो वहाँ तक एक से विशिष्ट अन्य का भान शक्य ही नहीं । यदि मानेंगे तो असत् गगनपुष्प से विशिष्ट वन्ध्यापुत्र भी मानने की विपदा आयेगी।
अब यदि (उक्त दिग्नाग के कथनानुसार) ऐसा कहें कि - हम ‘अनीलव्यावृत्ति से विशिष्ट अनुत्पलव्यावृत्ति' ऐसा नहीं मानते जिस से कि उपर प्रदर्शित दोष हो सके । तो क्या मानते हैं ? मानते यह हैं कि अनील से व्यावृत्त (यानी अनीलव्यावृत्तिविशिष्ट) जो वस्तु है और जो अनुत्पल से व्यावृत्त वस्तु है ये दोनों विशेषण-विशेष्यरूप सम्बन्ध से अवस्थित है। इस लिये नील और उत्पल शब्द से हमें क्रमश: अनीलव्यावृत्ति से विशिष्ट और अनुत्पलव्यावृत्ति से विशिष्ट तत्तद् वस्तु रूप अर्थ ही अभिप्रेत है । - तो यह भी गलत है । कारण, तत्तद् व्यावृत्ति से विशिष्ट वस्तु यदि स्वलक्षण रूप है तो वह तो आप के मतानुसार शब्द से वाच्य ही नहीं है । यदि उसे शब्दवाच्य मानेंगे तो आपने ही जो उस पक्ष में दोषनिरूपण किया है वह प्रसक्त होगा। दूसरी बात यह है कि स्वलक्षण अन्यव्यावृत्ति से विशिष्ट सिद्ध नहीं हो सकता । कारण, अन्यव्यावृत्ति तो अवस्तु रूप है जब कि वह असाधारण स्वलक्षणरूप अर्थ तो वस्तुरूप है; वस्तु और अवस्तु इन दोनों में कोई सम्बन्ध ही घट नहीं सकता (जिस से कि वस्तु को अवस्तु से विशिष्ट कहा जा सके) क्योंकि सम्बन्ध तो वस्तुभूत दो अर्थों पर निर्भर है।
★ अपोह की विशेषणता का असम्भव ★ कदाचित् मान ले कि अवस्तु का भी सम्बन्ध होता है । तथापि अपोह में विशेषणरूपता युक्ति से संगत
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