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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् गौः, नन्वेवमगोनिवृत्तिस्वभावत्वाद् गोरगोप्रतिपत्तिद्वारेणैव प्रतीतिः अगोच गोप्रतिषेधात्मकत्वात् गोप्रतिपत्तिद्वारिकैव प्रतीतिरिति गोप्रतिषेधात्मत्वात् गोप्रतिपत्तिद्वारिकैव प्रतीतिरिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम् ।
___ अथाप्यगोशब्देन यो गौनिषेध्यते स विधिरूप एव अगोव्यवच्छेदलक्षणापोहसिद्धयर्थम् तेनेतरेतराप्रयत्वं न भविष्यति । यद्येवं 'सर्वस्य शब्दस्यापोहार्यः' इत्येवमपोहकल्पना वृथा, विधिरूपः शब्दार्थः प्रसिद्धोऽङ्गीकर्तव्यः। तदनङ्गीकरणे चेतरेतराश्रयदोषो दुर्निवारः। तदुक्तम् [श्लो० वा. अपो० ८३-८४-८५]
सिद्धचागौरपोहोत गोनिषेधात्मकच स । तत्र गौरेव वक्तव्यो नजा यः प्रतिषिध्यते ॥ स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योन्यसंश्रयः । सिद्धश्चेद् गौरपोहाथै वृथाऽपोहप्रकल्पनम् ॥ गव्यसिद्धे त्वगौर्नास्ति तदभावेऽपि गौः कुतः ? ।
"नीलोत्पलादिशन्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानांनाहः" इत्याचार्यदिनागेन विशेष्य-विशेषणमावसमर्थनार्थ यदुक्तं तदयुक्तमिति दर्शयन्नाह भट्टः - "नाधाराधेयवृत्त्यादिसम्बन्धवाप्यभावयोः ॥" [श्लो. है - गौ तो अगोनिवृत्तिस्वरूप ही है' - ऐसा अगर कहेंगे तो अब देखिये कि 'गो' अगोनिवृत्तिरूप होने से 'अगौ' के भान के विना उसकी निवृत्ति रूप गौ का भान नहीं होगा, और 'अगौ' गोनिषेधरूप होने से 'गौ' के भान के विना अगौ का भान शक्य नहीं होगा। इस तरह स्पष्ट ही यहाँ एक दूसरे की प्रतीति एक दूसरे पर अवलम्बित होने से अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होगा।
*विधिस्वरूप शब्दार्थ की प्रसिद्धि★ अब अन्योन्याश्रय दोष को टालने के लिये यदि ऐसा कहें कि "अगोव्यवच्छेदरूप अपोह की स्वतन्त्ररूप से सिद्धि के लिये हम मानेंगे कि 'अगौ' शब्द में जिस गौ का निषेध किया जाता है वह विधिरूप अर्थ है।" - तो 'सभी शब्दों का अर्थ सिर्फ अपोह है' ऐसी अपोह की कल्पना निरर्थक ठहरेगी । कारण, अगोअपोह को शब्दवाच्य दिखाते हुए आप को उस के घटकभूत विधिरूप गौ अर्थ को भी वाच्य कहना ही पड़ेगा। इस प्रकार विधिस्वरूप भी अर्थ (न केवल अपोह,) शब्द का वाच्य होने का फलित होने से, आप को किसी एक शब्द का विधिरूप अर्थ भी प्रसिद्ध है यह स्वीकारना होगा । फिर शब्दमात्र के अर्थरूप में अपोह की कल्पना निरर्थक क्यों न होगी ? यदि आप विधिरूप अर्थ को शब्दवाच्य मानने के लिये उद्यत नहीं है तब तो पूर्वोक्त अन्योन्याश्रय दोष अटल ही रहेगा । कुमारिल ने श्लोकवार्त्तिक में कहा है -
'अगौ' किसी प्रकार सिद्ध हो तभी उस का अपोह किया जा सकता है। लेकिन 'अगौ' गोनिषेधरूप है। तो जिस का निषेध किया जाता है वह 'गौ' क्या है ? यह पहले कहना पडेगा । यदि वह 'गौ' अगोनिषेधरूप है तब तो स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय हुआ । यदि कहें कि अपोह की सिद्धि के लिये विधिरूप से प्रसिद्ध 'गौ' ही है वह, तब तो (वह विधिरूप 'गौ' भी शब्दवाच्य हो जाने से) अपोह की कल्पना व्यर्थ ठहरी । यदि 'गो' कोई विधिरूप अर्थ ही नहीं है तब तो 'अगौ' भी नहीं हो सकता । और 'अगौ' के अभाव में (उस के निषेध) रूप से 'गौ' भी कैसे सिद्ध होगा ?
★ अनील-उत्पल शब्दों में विशेषण-विशेष्यभाव असंगत ★ 'अपोह-अपोह का विशेषण-विशेष्यभाव घटेगा नहीं' ऐसा समझ कर दिमाग बौद्ध आचार्यने नील और
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