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द्वितीयः खण्ड:-का०-२ प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् । नाप्यनुमानेनापोहाध्यवसायः, "न चान्वयविनिर्मुक्ता प्रवृत्तिः शब्दलिंगयोः" इत्यादिना (५०-१०) तत्प्रतिषेधस्य तत्रोक्तत्वात् । तस्मात् 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेतोरनैकान्तिकत्वमपोहेन, अकृतसमयत्वेऽप्यपोहे शब्दप्रवृत्त्यभ्युपगमात् ।।
___ इतधापोहे संकेताऽसम्भवः अतिप्रसक्तेः । तथाहि - कथमवादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? 'सम्बन्धानुभवक्षणेऽश्चादेस्तद्विषयत्वेनाऽदृष्टेः' इति चेत् ? असदेतत् । यतो यदि यद् गोशब्दसंकेतकाले उपलब्धं ततोऽन्यत्र गोशब्दप्रवृत्तिर्नेष्यते तदैकस्मात् संकेतेन विषयीकृतात् शाबलेयादिकाद् गोपिण्डादन्यद् बाहुलेयादि गोशब्देनापोह्यं भवेत् ततश्च 'सामान्यं वाच्यमि'त्येतत्र सिद्धयेत् ।
___ इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेश्वापोहे संकेतोऽशक्यक्रियः । तथाहि - अगोव्यवच्छेदेन गोः प्रतिपत्तिः, सचागौ!निषेधात्मा, ततश्च 'अगौः' इत्यत्रोत्तरपदार्थो वक्तव्यः यो 'न गौरगौः' इत्यत्र नत्रा प्रतिषिध्येत, न ह्यनितिस्वरूपस्य निषेधः शक्यते विधातुम् । अथापि स्यात् किमत्र वक्तव्यम् - अगोनिवृत्त्यात्मा में शब्दप्रवृत्ति हो सकेगी।" - तो यह भी ठीक नहीं है । कारण आप के मत से अन्यापोह को छोड कर और किसी में भी शब्दवृत्ति की प्रवृत्ति शक्य ही नहीं है तो 'स्वलक्षण में शब्दप्रवृत्ति के द्वारा.... इत्यादि कहने का क्या अर्थ ?
अनुमान प्रमाण से भी अपोह का भान शक्य नहीं है क्योंकि "शब्द या अनुमान की प्रवृत्ति वृत्ति या व्याप्ति रूप सम्बन्ध की अपेक्षा विना नहीं होती'' इस वचन के अनुसार अपोह के साथ किसी की भी व्याप्ति न होने से अनुमान की प्रवृत्ति का अपोह में प्रतिषेध पहले ही कर दिया है । इस प्रकार अन्यप्रमाण की प्रवृत्ति न होने से अपोह में संकेत का सम्भव नहीं है। निष्कर्ष- 'अकृतसमयत्व' हेतु अपोह में ही साध्यद्रोही है क्योंकि अपोह में 'अकृतसमयत्व' रूप हेतु रहता है फिर भी 'वह शब्द का वाच्य नहीं होता' यह साध्य अपोह में अपोहवादी के मत में नहीं है क्योंकि वह अपोह को शब्द से वाच्य मानता है।
★ अपोह में संकेत की अशक्यता का बोधक अतिप्रसंग★ एक अतिप्रसंग के कारण भी अपोह में संकेत का सम्भव नहीं है। देखिये - अपोहवादी को यह प्रश्न है कि अश्वादि गोशब्द का अभिधेय क्यों नहीं होता ? यदि इस के उत्तर में वह कहेगा कि - "गोशब्द के संकेतकाल में संकेत के विषयरूप में अश्वादि दृष्टिगोचर नहीं हुआ - इसलिये "तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस का मतलब यदि ऐसा हो कि जो 'गो' शब्द के संकेतकाल में दृष्टिगोचर हुआ था, उस से भिन्न किसी भी पदार्थ में गोशब्द की प्रवृत्ति इष्ट नहीं है - तो यहाँ यह अतिप्रसंग होगा कि गोशब्द के संकेतकाल में यदि शाबलेयादि गोपिण्ड दृष्टिगोचर रहा होगा तो उस से भिन्न बाहुलेयादि गोपिण्ड दृष्टिगोचर न होने से अश्वादि की भाँति अपोह्य हो जायेगा (अर्थात् गोशब्द का अभिधेय (=वाच्य) नहीं बन सकेगा) इस का दुष्परिणाम यह होगा कि सामान्य ही (चाहे वह विधिरूप माना जाय अथवा अपोहरूप) वाच्य होता है यह सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो सकेगा।
अन्योन्याश्रय दोष के कारण भी अपोहमें संकेतक्रिया अशक्य है। जैसे देखिये - आप 'गो' शब्द से अगोव्यवच्छेदरूप से गो का भान मानते हैं, व्यवच्छेद का प्रतियोगी जो 'अगौ' है वह गोनिषेधरूप है। तो पहले 'अगौ' इस समास में उत्तरपदार्थ गौ क्या है जिस का आप नकार से प्रतिषेध करते हैं यही तो दिखाईये ! जब तक उस के स्वरूप का भान न हो तब तक उसका निषेध नहीं हो सकता। 'इस में क्या दिखाने
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