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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ____ 'गवाश्वयोः' इति 'गवाश्वप्रभृतीनि च' [पाणि० २-४-११ सिद्धान्तकौ० पृ. २०-८] इत्येकवद्भावलक्षणाऽस्मरणादुक्तम् । ___अविशेषप्रतिपादनार्थं स एव पुनरप्युक्तवान् -[श्लो० वा. अपो० ७७] शाबलेयाच्च भिन्नत्वं बाहुलेयाश्वयोः समम् । सामान्यं नान्यदिष्टं चेत् क्वागोऽपोहः प्रवर्त्तताम् ? ॥ ____ यथैव हि शाबलेयाद्वैलक्षण्यादश्वे न प्रवर्त्तते तथा बाहुलेयस्यापि ततो वैलक्षण्यमस्तीति न तत्राप्यसौ प्रवर्तेत, एवं शाबलेयादिष्वपि योज्यम् सर्वत्र वैलक्षण्याऽविशेषात् । अपि च यथा स्वलक्षणादिषु समयाऽसम्भवाद् न शब्दार्थत्वम् तथाऽपोहेऽपि । तथाहि - निश्चितार्थो हि समयकृत् समयं करोति, न चापोहः केनचिदिन्द्रियैर्व्यवसीयते, व्यवहारात् पूर्व तस्याऽवस्तुत्वात् इन्द्रियाणां च वस्तुविषयकत्वात् । न चान्यव्यावृतं स्वलक्षणमुपलभ्य शब्दः प्रयोक्ष्यते, अन्यापोहादन्यत्र शब्दवृत्तेः कि दोनों में कोई अन्तर नहीं है।" कुमारिलने इस श्लोक में जो 'गवाश्वयोः' ऐसा द्विवचनान्त प्रयोग किया है वह ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ एकवद्भावमूलक 'गवाश्वस्य' ऐसा एकवचननान्त प्रयोग 'गवाश्वप्रभृतीनि च' इस पाणीनि सूत्र से, सिद्धहेम० में 'गवाश्वादिः' ३-१-१८८ सूत्र से प्राप्त होता है, फिर भी द्विवचनान्त प्रयोग हुआ है इस के लिये व्याख्याकार कहते हैं कि उस पाणीनिसूत्र का स्मरण न रहने से ऐसा हो गया है। _ 'दोनों में कोई अन्तर नहीं है' इसी बात की स्पष्टता करते हुए कुमारिलने ही कहा है कि बाहुलेय और अश्व दोनों में शाबलेयपिण्ड का भेद समान ही है यदि (बाहुलेय में) कुछ भी समानता नहीं है (तो बाहुलेय में भी अगोऽपोह न रहने से) अगोअपोह की प्रवृत्ति कहाँ होगी ? तात्पर्य यह है कि अगोअपोह अश्व में प्रवृत्त नहीं होता इस का कारण यह है कि वह शाबलेय से विलक्षण है। तो बाहुलेय भी शाबलेय से विलक्षण होने से उस में भी अगोअपोह की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी। [शाबलेय-बाहुलेय में वस्तुभूत गोत्वादिरूप समानता मानी जाय तब तो यह कह सकते हैं कि बाहुलेय में गोत्व के होने से अगोअपोह की प्रवृत्ति हो सकती है, अश्व में वह न होने से अगोअपोह की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है] ★स्वलक्षणादिवत् अपोह में भी संकेत का असम्भव ★ एक बात यह है कि अपोवादी संकेत का असम्भव दिखा कर स्वलक्षणादि में शब्दार्थत्व का निषेध करता है और अपोह को शब्दार्थ कहता है। किन्तु अपोह में भी संकेत का सम्भव नहीं है इस लिये वह भी शब्द का अर्थ नहीं हो सकता । जैसे देखिये - संकेत करने वाला पुरुष पहले तो उस अर्थ का अन्य प्रमाणों से निश्चय करता है, बाद में उसमें किसी शब्द का संकेत कर सकता है। अपोह में संकेत करना हो तो उस का भी पहले किसी अन्य प्रमाण से निश्चय आवश्यक है। किन्तु बात यह है कि इन्द्रियों के द्वारा उस का भान होता नहीं; कारण, अपोह का शाब्दिक व्यवहार किया जाय तो उसके पहले तो वह वस्तुरूप से सिद्ध ही नहीं है, अवस्तु है, इन्द्रियों का अवस्तु में प्रवर्तन शक्य नहीं है। यदि ऐसा कहें कि - "अन्यापोह का भले ही इन्द्रिय से भान न होता हो किन्तु स्वलक्षण का तो इन्द्रिय से भान होता है और स्वलक्षण तो अन्यव्यावृत्त ही होता है इस लिये स्वलक्षण में शब्दप्रवृत्ति के द्वारा अन्यापोह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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