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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
शब्दलिङ्गयोः प्रवृत्तिरेव न प्राप्नोति, प्रवृत्तौ वा प्रामाण्यमभ्युपगतं हीयेत । तथाहि - प्रतिपाद्यार्थाऽव्यभिचारित्वं तयोः प्रामाण्यं, अपोहश्च प्रतिपाद्यत्वेन भवताऽभ्युपगम्यमानोऽभावरूपत्वानिःस्वभाव इति क्व तयोरव्यभिचारित्वम् ? न च विजातीयाऽदर्शनमात्रेणैव शब्दलिङ्गे अगृहीतसाहचर्ये एव स्वमर्थ गमयिप्यतः, विजातीयादर्शनमात्रेण गमकत्वाभ्युपगमे 'स्वार्थः परार्थ' इति विशेषानुपपत्तेः । तथा च स्वार्थमपि न गमयेत् तत्र अदृष्टत्वात् परार्थवत्। तदेवं शब्दलिङ्गयोप्रामाण्याभ्युपगमप्रसङ्गानापोहः शब्दार्थो युक्तः।
यदि वा असत्यपि सारूप्ये शाबलेयादिष्वगोऽपोहकल्पना तदा गवाश्वस्यापि कस्मान कल्प्येतासौ अविशेषात् । तदुक्तं कुमारिलेन [श्लो० वा. अपो० ७६]
अथाऽसत्यपि सारूप्ये स्यादपोहस्य कल्पना । गवाश्वयोरयं कस्मादगोऽपोहो न कल्प्यते ॥ हो सकता है, न शब्द की ही प्रवृत्ति हो सकती है । फलत: शब्द या लिंग से अपोह का भान नहीं कराया जा सकता । देखिये - अग्नि आदि में अग्नित्व आदि सामान्य धर्म के विना शब्द और लिंग (अनुमान) की प्रवृत्ति शक्य नहीं है और शब्द-अनुमान की प्रवृत्ति विना अपोह का भान शक्य नहीं । कारण, शब्द या अनुमान का अधुनोत्पन्न असाधारण स्वलक्षण व्यक्ति के साथ कोई अन्वय (=सम्बन्ध) संभव नहीं है, सम्भव हो तो सिर्फ तद्गत सामान्य धर्म के साथ ही सम्बन्ध का संभव है। इस लिये अपोह की कल्पना करने पर शब्द और लिंग की प्रवृत्ति घटती नहीं है । अपोह में शब्द या अनुमान की प्रवृत्ति असंगत होते हुये भी आप मानेंगे तो वैसे शब्द या अनुमान को प्रमाणभूत नहीं मान सकेंगे क्योंकि उसका विषय अपोह असत् है । जैसे देखिये • शब्द और अनुमान में प्रामाण्य कया है ? - प्रतिपाद्य अर्थ का अव्यभिचार । आपने जिस को प्रतिपाद्य माना है वह अपोह तो अभावरूप होने से सर्वस्वभावशून्य है अर्थात् वह प्रतिपाद्य ही नहीं है तो फिर उस के अव्यभिचार-रूप प्रामाण्य भी उन दोनों में कैसे आयेगा ?
यदि ऐसा कहें कि - "अव्यभिचार दृष्ट न होने पर भी उस के विजातीय यानी व्यभिचार का भी दर्शन कहाँ है ? व्यभिचार के अदर्शनमात्र से शब्द और लिङ्ग (=अनुमान) स्वार्थ का = अपने अर्थों का बोध करा सकेगा।" - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि व्यभिचार का अदर्शन शब्द और लिङ्ग में जैसे स्वार्थ के साथ है वैसे पर अर्थ के साथ भी व्यभिचार का अदर्शन तुल्य है । इस स्थिति में यह स्वार्थ (अर्थात् 'घट' शब्द का घट रूप अर्थ स्वार्थ है) और यह (पटादि) पदार्थ है ऐसा विभाग ही व्युच्छिन्न हो जायेगा। फलत:, व्यभिचार का अदर्शन होने पर भी जैसे शब्द और लिंग से परार्थ का बोध नहीं होता वैसे ही स्वार्थ का भी बोध नहीं हो सकेगा । इस के फल स्वरूप शब्द और लिंग को सर्वथा अप्रमाण मानने की आपदा होने के कारण, अपोह को शब्द का वाच्यार्थ मानना असंगत है।
★ साजात्य के विना अश्व में भी अगोऽपोह की आपत्ति अगर ऐसा बोले कि - "शाबलेय-बाहुलेयादि पिंडो में कुछ भी सारूप्य साजात्य न होने पर भी उन में अगोऽपोह की कल्पना कर सकते हैं' - तो यह अनुचित है क्योंकि साजात्य का अभाव जैसे गोपिंडो में है वैसे अश्वादि में भी है, इसलिये गोपिंडो में अगोअपोह मानने पर अश्वादि में भी वह क्यों न माना जाय ? जब कि कोइ विशेषता तो है नहीं । कुमारिलने श्लोकवार्त्तिक में यही कहा है कि - "सारूप्य के न होने पर भी यदि अगोऽपोह की कल्पना करनी है तो गो और अश्वादि में दोनों में वह कल्पना करनी चाहिये क्यों
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