________________
श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अत एवानधिगतविशेषांशं तादृशं सम्बन्धिभेदादपि कथमिव भेदमभुवीत ? किंच, भवतु नाम सम्बन्धिभेदाद् भेदस्तथापि वस्तुभूतसामान्यानभ्युपगमे भवतां स एवापोहाश्रयः सम्बन्धी न सिद्धिमासादयति यस्य भेदात् तद्भेदोऽवकल्प्यते । तथाहि- यदि गवादीनां वस्तुभूतं सारूप्यं प्रसिद्धं भवेत् तदाऽश्वायपोहाश्रयत्वमेषामविशेषेण सिद्धयेत(त्) नान्यथा, अतोऽपोह विषयत्वमेषामिच्छताऽवश्यं सारूप्यमङ्गीकर्त्तव्यम्, तदेव च सामान्यं वस्तुभूतं शब्दवाच्यं भविष्यतीत्यपोहकल्पना व्यथैव ।
अपोह्यभेदेनापोहभेदोऽपि वस्तुभूतसामान्यमन्तरेण न सिद्धिमासादयति । तथाहि - यद्यश्वादीनामेकः कश्चित् सर्वव्यक्तिसाधारणो धर्मोऽनुगामी स्यात् तदा ते सर्वे गवादिशब्दैरविशेषेणापोहोरन् नान्यथा, विशेषाऽपरिज्ञानात् । साधारणधर्माभ्युपगमे चापोहकल्पनावैयर्थ्यम् ।
अपि च अपोहः शब्द-लिङ्गाभ्यामेव प्रतिपाद्यत इति भवद्भिरिप्यते । शब्दलिङ्गयोध वस्तुभूतसामान्यमन्तरेण प्रवृत्तिरनुपपन्नेति नातोऽपोहप्रतिपत्तिः । तथाहि - अनुगतवस्तुव्यतिरेकेण न (शब्दलिङ्गयोः प्रवृत्तिः, न च) शब्दलिङ्गाभ्यां विनाऽपोहप्रतिपत्तिः । न चाऽसाधारणस्यान्वयः, तदेवमपोहकल्पनायां
कुछ देर तक मान ले कि 'गो आदि में सम्बन्धिभेद से भेद होता है" तो भी यह सोचना जरूरी है कि भिन्नरूपता और समानरूपता एकदूसरे के अविनाभावि तत्त्व हैं । इसलिये गोआदि पिण्डों में वास्तविक (गोत्वादि) सामान्य तत्त्व को न मानने पर अगो-अपोह के भिन्नरूपता के आश्रय रूप गो आदि पदार्थ की ही सिद्धि होना दुष्कर है (क्योंकि गो पिण्डोंमें गोत्वरूप समानता के विना तदविनाभावि अगोभेद भी सिद्ध नहीं हो सकता) तो जब गो आदि की आश्रयरूप में सिद्धि ही नहीं है तो उनके भेद से अपोह के भेद की कल्पना भी नहीं हो सकती है। देखिये - गो आदि पिण्डों में वस्तुभूत समानरूपता मानी जाय तो (अगो यानी अश्वादि के अपोह की आश्रयता भी तदविनाभावि होने से समानता की तरह सिद्ध की जा
जा सके अन्यथा तो उस की सिद्धि दुष्कर है। इसलिये जिस को गो आदिमें अपोहविषयता यानी अपोहाश्रयता मानना हो उस को अनिवार्य रूप से समानरूपता भी मान्य करना ही चाहिये । वह समानरूपता ही वस्तुभूत सामान्य है जो शब्द का वाच्यार्थ बन सकता है, अत: अपोह की कल्पना निकम्मी है।
★ अपोह्य के भेद से अपोहभेद असम्भव ★ अब ऐसा कहें कि 'सम्बन्धि के भेद से नहीं, तो हम अपोह्य अगो-अश्वादि के भेद से अपोह का भेद मानेंगे' तो यह अपोहभेद तभी सिद्ध हो सकता है जब कि अश्व आदि में वस्तुभूत सामान्य (अश्वत्वादि) को मान्य करें । देखिये - अश्वादि सकल व्यक्ति में रहने वाला कोई एक अनुगामी धर्म मौजूद रहेगा तो गो आदिशब्दों से सामान्यधर्मावच्छेदेन उन सभी के अपोह का - भेद का प्रतिपादन शक्य हो सकता है अन्यथा नहीं हो सकता, क्योंकि एक शब्द से पृथग् पृथग् एक एक के भेद का निरूपण तो शक्य नहीं है क्योंकि एक एक व्यक्ति का स्वतंत्र भान तो हम लोगों को होता नहीं । अब यदि अपोह्य अश्वादि में अश्वत्वादि सामान्य धर्म का अंगीकार कर लिया जाय तो उसी से काम चल जाने से अपोह की कल्पना निरर्थक है।
___ तथा दूसरी बात यह है आप मानते हैं कि शब्द या लिंग (अनुमापक) इन दोनों से ही अपोह का निरूपण होता है। तो यह भी ज्ञातव्य है कि वस्तुगत सामान्यधर्म के विना न तो लिंग (=हेतु) से अनुमान * 'विषयशब्दोऽत्राश्रयवचन: जलविषया मत्स्या इति यथा' [त० सं० पंजिका]
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org