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________________ द्वितीयः खण्डः - का० - २ एतदेवाह [लो० वा० अपो० श्लो० ८६ तः ९१] न चासाधारणं वस्तु गम्यतेऽपोहवत् तया । कथं वा परिकल्प्येत सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः || स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्याद् किंचिद् विशेषणम् । स्वबुद्धया रज्यते येन विशेष्यं तद् विशेषणम् ॥ न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो जायतेऽपोहबोधनम् । “विशेष्यबुद्धिरिष्टेह न चाऽज्ञातविशेषणा ॥ न चान्यरूपमन्यादृक् कुर्यां ज्ञानं विशेषणम् । कथं चान्यादृशे ज्ञाने तदुच्यते विशेषणम् ॥ अथान्यथा विशेष्येsपि स्याद् विशेषणकल्पना । तथा सति हि यत् किंचित् प्रसज्येत विशेषणम् ॥ अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता । विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः ॥ 1 -- अथान्यव्यावृत्ते वस्तुनि शब्दलिङ्गयोः प्रवृत्तिर्दृश्यते नापोहरहिते, अतोऽपोहः शब्द- लिङ्गाभ्यां प्रतिपाद्यत इत्यभिधीयते न प्रसज्यप्रतिषेधमात्रप्रतिपादनात्, अत एव न प्रतीत्यादिविरोधोद्भावनं युक्तम् । असदेतत् यतो यदि नाम तद् वस्त्वन्यतो व्यावृत्तं तथापि तत्रोत्पद्यमानः शब्दलिङ्गोद्भवो बोधोऽन्यव्यावृत्तिं है ? ऐसा नहीं मान सकते कि 'अपोह भी अपने आकार की बुद्धि से अश्वादि विशेष्यरूप वस्तु को उपरञ्जित करता है' । यदि मानेंगे तब तो अश्वादि की प्रतीति भावरूप से ( वस्तुरूप से) न होकर अभावरूप से (अवस्तुरूप से) होने के कारण, अश्वादिमें वस्तुत्व का उच्छेद हो जायेगा, क्योंकि भावाकार और अभावाकार परस्पर विरुद्ध होता है । (इसलिये अश्वादि को अभावाकार बुद्धि विषय मानने पर उसकी भावरूपता का लोप प्रसक्त होगा ।) ५७ यही बात कुमारिल करता है " शाब्दिक प्रतीति से ऐसा भान नहीं होता कि असाधारण वस्तु अपोहविशिष्ट है तथा वस्तु के साथ अवस्तु के सम्बन्ध की कल्पना भी कैसे हो सकती है ? अपनी सत्ता मात्र से कोई 'विशेषण' नहीं बन सकता । जो अपनी बुद्धि से विशेष्य को उपरञ्जित करे वही विशेषण होता है । 'अश्व' आदि शब्दों से अपोह का तो बोध नहीं होता । जब उस का विशेषणरूप से बोध न हो तब तक विशेष्य का (यानी विशिष्ट का) भान भी शक्य नहीं है । एकस्वरूपवाला विशेषण अन्यस्वरूपविषयक ज्ञान करा नहीं सकता । ज्ञान अगर अन्यस्वरूपविषयक हो तो वह एकस्वरूपवाला कैसे 'विशेषण' कहा जाय ? यदि अन्यस्वरूप (वस्तुरूप) विशेष्य होने पर भी अवस्तुरूप अपोह 'विशेषण' होने की कल्पना की जायेगी तो कोई भी किसी का विशेषण होने का अतिप्रसंग होगा । और 'विशेष्य' यदि अभावरूप से ज्ञात होगा तब तो विशिष्ट वस्तु शब्दवाच्य हो नहीं सकती ।" ★ अन्यव्यावृत्ति शब्द - लिंग का विषय नहीं ★ अपोहवादी : शब्द और लिंग की प्रवृत्ति जब जब होती है तब अन्यव्यावृत्त गोआदि वस्तु में ही होती है अव्यावृत्त में यानी अपोहशून्य में नहीं होती । यही कारण है कि हम अपोह को शब्द और लिंग का ग्राह्य मानते हैं। सिर्फ प्रसज्यप्रतिषेध मात्र का प्रतिपादक होने से हम अपोह को वाच्य दिखाते हैं - ऐसा नहीं है इसलिये प्रसज्यप्रतिषेधादि को ले कर आपने जो प्रतीतिविरोधादि दोषों का उद्भावन किया है वह युक्त नहीं है । मीमांसक : यह बात गलत है । कारण, ठीक है कि वह 'गो' आदि वस्तु अन्य अश्वादि से व्यावृत्त ही होती है, किन्तु उस का मतलब यह नहीं है कि जब शब्द या लिंग से गो आदि की बुद्धि उत्पन्न हो तब उस में रही हुई अन्यव्यावृत्ति भी विषयरूप से भाषित हो । तो क्या मतलब है ? मतलब यह है कि शब्द * लोकवार्त्तिके 'विशिष्टबुद्धि' इति पाठान्तरम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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