________________
द्वितीयः खण्ड:-का०-२ शिरसोऽवयवा निम्ना वृद्धि काठिन्यवर्जिताः । शशशृंगादिरूपेण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते ॥४॥ न चाऽवस्तुन एते स्युर्भेदास्तेनाऽस्य वस्तुता । (८ पूर्वार्धम्)
एतेन क्षीरादय एव दध्यादिरूपेण अविद्यमानाः प्रागभावादिव्यपदेशभाज इत्युक्तं भवति । अगोनिवृत्तिश्चान्योन्याभावः तस्या अश्वादिव्यवच्छेदरूपत्वात्, तस्मात् सा वस्तु । तत्रैवमभावस्य भावान्तरात्मकत्वे कोऽयं भवद्भिरवादिनिवृत्तिस्वभावोऽभावोऽभिप्रेत इति ? ।
अथ गवादिस्वलक्षणात्मैवाऽसौ । न, तत्र सर्वविकल्पप्रत्ययास्व(?त्यस्त)मयात् विकल्पज्ञानगोचरः सामान्यमेवेष्यते, असाधारणस्त्वर्थः सर्वविकल्पानामगोचरः । यथोक्तम् -
स्वसंवेद्यमनिर्देश्यं रूपमिन्द्रियगोचरः। [ ]
यथैव हि भवतामसाधारणो विशेषोऽश्वादिनिवृत्त्यात्मा गोशब्दाभिधेयो नेष्टस्तथैव शावलेयादिः शब्दवाच्यतया नेष्टः असामान्यप्रसङ्गतः । यदि हि गोशब्दः शाबलेयादिवाचकः स्यात् तदा तस्यानन्वयान सामान्यविषयः स्यात् । यतश्चाश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावोऽसाधारणो न घटते तस्मात् सर्वेषु सजातीयेषु शाबलेयादिपिण्डेषु यत् प्रत्येकं परिसमाप्तं तनिबन्धना गोबुद्धिः, तच्च गोत्वाख्यमेव सामान्यम्, तस्याऽगोऽपोहशब्देनाभिधानात् केवलं नामान्तरमिति सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषः । दूध आदि का नास्तित्व है यही प्रध्वंसाभाव का स्वरूप है । गो में जो अश्वादिरूपता का अभाव है उसे अन्योन्याभाव कहते हैं । और खरगोश आदि के मस्तक में जो वृद्धि और कठिनता से रहित निम्न अवयव होते हैं वे शशशृंगादि रूप न होने से अत्यन्ताभाव कहा जाता है जो सर्वथा वस्तुरूप नहीं होता उस के कोई भेद नहीं होते, इसलिये प्रागभावादि जिस के भेद हैं वह मूलतत्त्व अभाव वस्तुरूप है, अवस्तुरूप नहीं ।" ।
इस से यही ध्वनित होता है कि दहीं आदि रूप से अविद्यमान जो दूध आदि वस्तु है वही प्रागभावादिशब्द का वाच्य है।
यहाँ अगोनिवृत्ति रूप जो अभाव है वह अगो=अश्वादि के व्यवच्छेदरूप होने से अन्योन्याभावरूप है और इसीलिये वह तुच्छ अपोह रूप न होकर वस्तुरूप है । इसप्रकार जब यहाँ अभाव भावान्तरस्वरूप ही सिद्ध होता है तो फिर गोत्वादि से अतिरिक्त (अगो=)अश्वादिनिवृत्तिस्वरूप कौन सा अभाव इष्ट है ?
★ पर्युदासरूप अपोह गो-आदि स्वलक्षणात्मक नहीं है* अपोहवादी:- हम 'गो' आदि स्वलक्षण पदार्थ को ही अश्वादिनिवृत्तिरूप से पर्युदासात्मक अभाव से कहना चाहते हैं।
सामान्यवादी:- यह संभव नहीं है, क्योंकि आप के मत से स्वलक्षणरूप पदार्थ सिर्फ निर्विकल्पज्ञान का ही विषय है, सविकल्प सभी ज्ञान उस के ग्रहण में असमर्थ हैं । शब्दजन्यज्ञान तो विकल्पज्ञान का विषय होता है। कहा भी है - 'स्वसंविदित हो और (शब्द से) निर्देश के अयोग्य हो ऐसा रूप (अर्थ) ही इन्द्रिय का (यानी इन्द्रियजन्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष का) विषय होता है ।
इस का मतलब यह हुआ कि आप को अश्वादिनिवृत्तिस्वरूप असाधारण विशेष पदार्थ गो शब्द के वाच्यार्थरूप में इष्ट नहीं है । और उसी तरह 'कबचितरा गो' आदि अर्थ भी शब्द के वाच्यार्थरूप में मान्य नहीं हो सकता,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org