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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् तथा चाह कुमारिलः - [श्लो० वा. अपोह० १-२-३.१०] अगोनिवृत्तिः सामान्यं वाच्यं यः परिकल्पितम् । गोत्वं वस्त्वेव तैरुक्तमगोपोहगिरा स्फुटम् ।। भावान्तरात्मकोऽभावो येन सर्वो व्यवस्थितः । तत्राश्वादिनिवृत्त्यात्माऽभावः क इति कथ्यताम् ॥ नेष्टोऽसाधारणस्तावद् विशेषो निर्विकल्पनात् । तथा च शाबलेयादिरसामान्यप्रसङ्गतः ॥ तस्मात् सर्वेषु यद्रूपं प्रत्येकं परिनिष्ठितम् । गोबुद्धिस्तनिमित्ता स्यागोत्वादन्यच्च नास्ति तत् ॥ अथ प्रसज्यलक्षणमिति पक्षस्तदा पुनरप्यगोऽपोहलक्षणाभावस्वरूपा शून्यता गोशब्दवाच्या प्रसक्ता वस्तुस्वरूपापहवात्, तत्र च शाब्दबुद्धीनां स्वांशग्रहणं प्रसक्तम् बाह्यवस्तुरूपाग्रहात्, ततश्चापोहस्य वाच्यत्वं मुधैवाभ्युपगतं परेण बुद्धयाकारस्याम(?न)पेक्षितबाहालम्बनस्य विधिरूपस्यैव शब्दार्थत्वापत्तेः । इत्यक्योंकि उसको शब्द का वाच्य मानेंगे तो सामान्यरूप अर्थ का वाचक्र न हो कर विशेष रूप अर्थ का वाचक हो जायेगा । कारण, यदि 'गो' शब्द 'कबचितरा गो' आदि विशेष का वाचक होगा तो वह प्रत्येक 'गो' पदार्थ में अनुगत न होने से, सामान्य रूप से कोई भी गोपदार्थ शब्द का विषय न रहेगा । तात्पर्य, असाधारण भाव अश्वादिनिवृत्तिरूप घट सकता नहीं, अतः सभी 'कबचितरा' आदि सजातीय अर्थों में प्रत्येक में रहनेवाला जो (सामान्य) तत्त्व है वही गोशब्द से होनेवाली गोबुद्धि का निमित्त है। और वही गोत्वजातिरूप सामान्य है क्योंकि 'अगोअपोह' शब्द से विचार करने पर उसी का प्रतिपादन होता है। हाँ, आप उसको गोत्व न कह कर 'अगोअपोह' कहते हैं यह सिर्फ संज्ञान्तर है । इस प्रकार आप की प्रतिज्ञा में सिद्धसाध्यता दोष सिद्ध हुआ। कुमारील ने भी श्लोकवार्तिक में कहा है - जिन लोगों ने अगोनिवृत्तिरूप सामान्य को शब्दवाच्य माना है उन्होंने प्रगटरूप से अपोह शब्द से गोत्वरूप वस्तु का ही निरूपण किया है । क्योंकि (पर्युदास पक्ष में) सभी अभाव भावान्तरस्वरूप होता है, तो अश्वादिनिवृत्तिरूप अभाव कौन सा भाव है यह कहिये । असाधारण विशेष अर्थ तो निर्विकल्पग्राह्य होने से शब्दवाच्य हो नहीं सकता तथा कबचीतरा आदि भी शब्दवाच्य हो नहीं सकता क्योंकि तब शब्द सामान्यवाचक न रहेगा । इसलिये सभी अर्थों में जो प्रत्येक में अनुगत हो वही गोबुद्धि का निमित्त है और वह गोत्व जाति से भिन्न संभव नहीं ★ प्रसज्यरूप अपोह-पक्ष में प्रतिज्ञाबाध★ अब अगोनिवृत्ति में निवृत्तिरूप अभाव को प्रसज्य-निषेधरूप ग्रहण करेंगे तो अगोअपोहरूप अभाव का पर्यवसान शून्यता में होगा क्योंकि प्रसज्यपक्ष में अन्य किसी वस्तु का विधान नहीं होता, सिर्फ वस्तुस्वरूप का अपह्नव यानी निषेध ही किया जाता है । फलत: शून्यता ही शब्द का वाच्यार्थ हुई । इसलिये यहाँ 'गो' शब्द से किसी भी बाह्यवस्तु की बुद्धि न होकर जो बुद्धि होगी वह अपने ज्ञानांश मात्र को ही ग्रहण करने वाली होगी न कि विषयांश को । जब इसप्रकार शब्द से ज्ञानांश मात्र का ही भान होता है तो अपोहवादी ने जो अपोह को शब्द का वाच्य बताया वह निकम्मा है क्योंकि उसको बाह्यार्थ आलम्बन से निरपेक्ष विधिरूप बुद्धि-आकार ही शब्द का वाच्यार्थ मानने की आपत्ति है । फलत: अपोहवादी को उसके मत में ही विरोध प्रसक्त है। यदि ऐसा कहें कि - "वह 'गो' शब्द से उत्पन्न होने वाला बुद्धिआकार उस से भिन्नजातीय 'अगो' बुद्धि आकार से व्यावृत्तरूप वाला होने से, अपोह के वाच्य होने की कल्पना असंगत नहीं है" - तो यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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