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द्वितीयः खण्डः - का० - २
[ 'निषेधमात्रमेव अन्यापोह:' इति मत्वा कुमारिलकृताक्षेपोपन्यासः ]
अत्र परो 'निषेधमात्रमेव किलान्यापोहोऽभिप्रेत' इति मन्यमानः प्रतिज्ञायाः प्रतीत्यादिविरोधमुद्
भावयन्नाह
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- [त० सं०-९१०-९११]
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' नन्वन्यापोहकृच्छब्दो युष्मत्पक्षे नु वर्णितः । निषेधमात्रं नैवेह प्रतिभासेऽवगम्यते ॥ किन्तु गौर्गवयो हस्ती वृक्ष इत्यादिशब्दतः । विधिरूपावसायेन मतिः शाब्दी प्रवर्त्तते ॥ यदि गौरित्ययं शब्दः समर्थोऽन्यनिवर्त्तने । जनको गवि गोबुद्धेर्मृग्यतामपरो ध्वनिः ॥
[का० लं० ६/१७] ननु ज्ञानफलाः शब्दा न चैकस्य फलद्वयम् । अपवाद - विधिज्ञानं फलमेकस्य वः कथम् १ ॥ [का० लं० ६ / १८]
प्रागगौरिति विज्ञानं गोशब्दश्राविणो भवेत् । येनागोः प्रतिषेधाय प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः ॥ [का० लं० ६/१९)
यदि गोशब्दोऽन्यव्यवच्छेदप्रतिपादनपरस्तदा तस्य तत्रैव चरितार्थत्वात् सास्नादिमति पदार्थे गोशब्दात् प्रतीतिर्न प्राप्नोति । ततश्च सास्नादिमत्पदार्थविषयाया गोबुद्धेर्जनकोऽन्यो ध्वनिरन्वेषणीयः । अथैकेनैव गोशब्देन बुद्धिद्वयस्य जन्यमानत्वान्नापरो ध्वनिर्मृग्यः । (तन ) नैकस्य विधिकारिणः प्रतिषेअर्थ प्रतिपादित नहीं होता है इसलिये वह सपक्ष है और उस में अश्वपदसंकेत का अभाव रूप हेतु भी रहता है । इस प्रकार स्वलक्षणादि अर्थ से निवृत्त शब्दवाच्यता अपोह = तदन्यव्यावृत्ति फलित होने से हुआ कि शब्द अपोहकारक यानी तदन्यव्यावृत्तिबोधजनक ही है ।
यह सिद्ध
★ निषेधमात्र अन्यापोह में विरोधादि प्रदर्शन ★
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यहाँ जो वादी ऐसा समझता है कि अपोहवाद में अन्यापोह का अर्थ सिर्फ निषेधमात्र ही अभिप्रेत है वह वादी 'शब्द अपोहकारक है' इस पूर्वोक्त प्रतिज्ञा में विरोध आदि का उद्भावन करता हुआ अपोहवादी को कहता है कि " आपके मत में शब्द को सिर्फ अन्यापोहकारक कहा गया है; किन्तु (गो आदि शब्द जनित ) प्रतिभास में निषेधमात्र का भान ही नहीं होता है । गो, गवय, हस्ती आदि शब्दो में तो विधिमुख से (गो आदि पिण्ड का) ही शब्दबोध होता है ।" [त० सं० ९१० - ९११]
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★ अपोहवाद में 'गो' शब्द से गोबुद्धि का अनुदय ★
( काव्यालंकार के तीन श्लोकों के बाद उस का अर्थ भी व्याख्याकार ने स्पष्ट किया है - इस लिये श्लोकों का अलग अर्थ यहाँ नहीं लिखा है) यदि अपोहवाद में 'गो' शब्द को गोभिन्न के व्यवच्छेद का प्रतिपादक माना जाता है तो सिर्फ उसमें चरितार्थ हो जाने से, गोशब्द द्वारा सास्नादिवाले पदार्थ की प्रतीति हो नहीं सकेगी । फलतः सास्नादिवाले पदार्थ को विषय करनेवाली 'गोबुद्धि' को जन्म देने वाला कोई और ही शब्द ढूँढना पडेगा । यदि कहें कि 'एक ही 'गो' शब्द से गोभिन्न अर्थ के व्यवच्छेद की बुद्धि और सास्नादिवाले + 'ननु ज्ञानफलाः शब्दाः' इत्यादि 'कुमारिलवचनम्' इति निर्दिष्टं सम्मतिटीकाकृताऽस्य निरसनावसरे । 'एतेन यदुक्तं कुमारिलेन' इत्युल्लिख्य श्लोकपंचकमेतन्निरदेशि श्रीयशोविजयैः शाखवा० स्पा० क० याम् (स्त० ११ पृ० २३१ ) इति ।
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