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________________ श्री सम्मति तर्कप्रकरणम् [ वैभाषिकमतं निर्दिश्य तनिरसनम् ] - एतेन वैभाषिकोsपि शब्दविषयं नामाख्यमर्थचिह्नरूपं विप्रयुक्तं संस्कारमिच्छन्निरस्तः । तथाहि - तन्नामादि यदि क्षणिकं तदाऽन्वयाऽयोगः । अक्षणिकत्वे क्रमिज्ञानानुपपत्तिः, बाह्ये च प्रवृत्त्यभावः, सारूप्यात् प्रवृत्तौ न सर्वदा बाह्य एव प्रवृत्तिः । ४२ अशक्यसमयो ह्यात्मा नामादीनामनन्यभाक् । तेषामतो न "चान्यत्वं कथश्चिदुपपद्यते ॥ [ ] इत्यादेः सर्वस्य समानत्वात् । तदेवम् ' अशक्यसमयत्वात्' इत्यस्य हेतोर्नासिद्धता । नाप्यनैकान्तिकत्वविरुद्धत्वे । तत् सिद्धम् 'अपोहकृच्छन्दः' इति । हमारे पक्ष की ही शरणागति सिद्ध होती है क्योंकि शब्द का बाह्यार्थ के साथ कुछ भी सम्बन्ध न होने पर भी भ्रान्ति से तद्विषयक व्यवहार होने की बात पहले ही कह आये हैं तो यहाँ सिद्धसाध्यता का दोष क्यों नहीं होगा ? जैसे धूम से अग्निमात्र की अनुमिति होती है, वह अग्नि तृणजनित है या पर्णजनित इत्यादि की अनुमिति नहीं होती, इसी तरह शब्द रूप लिंग से सिर्फ विवक्षा (वक्ता को कुछ कहने की इच्छा है इतने) मात्र की अनुमिति होती है किन्तु वह विवक्षा वस्त्रसंबन्धि है या मिट्टीसम्बन्धि ऐसा कुछ भान अनुमिति में नहीं होता इतना तो हम भी मानते हैं । ★ नामसंज्ञक संस्कार शब्दविषय- वैभाषिक ★ वैभाषिक बौद्ध लोग जो यह मानते हैं कि 'अर्थ के चिह्नरूप 'नाम' संज्ञक (या निमित्तसंज्ञक ) संस्कार जो कि अर्थ से विभिन्न है वही शब्द का विषय है ।' यह भी निरस्त हो जाता है क्योंकि ये नामादि अगर क्षणिक मानेंगे तो संकेतकालीन नामादि का व्यवहारकाल में अन्वय न होने से शब्द का उस नामादि में किया गया संकेत व्यर्थ होगा । यदि नामादि अक्षणिक मानेंगे तो पहले कह आये हैं कि अक्रमिक कारण से क्रमिक ज्ञानादि कार्यों की उपपत्ति न होगी । तथा नामादि शब्द के विषय होने पर बाह्यार्थ में प्रवृत्ति भी नहीं घटेगी । साम्य के कारण बाह्यार्थ में प्रवृत्ति मानेंगे तो सदा के लिये बाह्यार्थ में ही प्रवृत्ति हो ऐसा नहीं हो सकेगा क्योंकि कदाचित् नामादि में भी प्रवृत्ति होने की सम्भावना निर्बाध है । तथा 'नामादि का आत्मा (स्वरूप) अन्यभाक् यानी परावलम्बी नहीं है इसलिये (संकेतावलम्बी भी न होने से ) उन में संकेत अशक्य है । संकेत अशक्य होने से उनमें किसी भी रीति से (अवाच्य से अन्यत्व यानी ) वाच्यत्व घट नहीं सकता" । इत्यादि पूर्वोक्त सभी दूषण इस वैभाषिक के पक्ष में समानरूप से लब्धावकाश हैं । इस तरह स्वलक्षणादि किसी भी अर्थ में संकेत शक्य न होने का दिखा कर ( अपोहवादी कहता है कि ) हमने जो हमारे पूर्वोक्त अनुमान में 'संकेत शक्य न होने से' ऐसा हेतु कहा था वह असिद्ध नहीं है । न तो वह अनैकान्तिक ( साध्यद्रोही) है क्योंकि किसी भी विपक्ष में रहता नहीं है । तात्पर्य, संकेत की शक्यता से शुन्य होने पर भी कोई अर्थ शब्द से प्रतिपादित होता हो ऐसा कहीं भी दिखता नहीं है । तथा 'संकेतकृत न होने से यह हेतु सपक्ष में रहता है इसलिये विरुद्ध भी नहीं है । देखिये, अश्व आदि शब्द से गोपिण्डादि *. 'वाच्यत्वम्' इति पाठः सम्यक् । अस्मिन् संदर्भे प्रमाणवार्त्तिक- २-२४९ श्लोकः तत्त्वसंग्रहे १२६३ श्लोकभ विचारणीयौ । Jain Educationa International - - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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