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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न प्राप्नुतः, अतद्विषयत्वाच्छब्दस्य । अथ स्वप्रतिभासो(से)ऽनर्थेऽर्थाध्यवसायेन प्रान्त्या ते प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती भवतस्तदा भ्रान्तः शब्दार्थः प्राप्नोति, तस्याश्च बीजं वक्तव्यम्, अन्यथा सा सर्वत्र सर्वदा भवेत् । यदि पुनर्भावानां परस्परतो भेद एव बीजमस्यास्तदाऽस्मत्पक्ष एव समर्थितः स्यादिति सिद्धसाध्यता ।
किंच सर्वमेतत् स्वलक्षणादिकं शब्दविषयत्वेनाभ्युपगम्यमानं क्षणिकम् अक्षणिकं वेति ? आयपक्षे संकेतकालदृष्टस्य व्यवहारकालानन्वयान तत्र समयः सप्रयोजनः । अक्षणिकपक्षे च 'नाक्रमात् क्रमिणो भावः' [प्र. वा. १-४५ पृष्ठ • २३] इति शब्दार्थविषयस्य क्रमिकज्ञानस्याभावप्रसक्तिः ।
[ विवक्षापदार्थवादिमतमुल्लिख्य तनिरसनम् ] अन्ये त्वाहुः - 'अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति' इति । यथोक्तम् 'अनुमानं विवक्षायाः शब्दादन्यन्न विद्यते' [ ] इति । अत्रापि यदि परमार्थतो विवक्षा पारमार्थिकशब्दार्थविषयेष्यते, तदसिद्धम्, शब्द से विचित्र यानी भिन्न भिन्न प्रतिभा का जन्म होता है - वह कैसे बनेगा ? एक शब्द एक ही प्रतिभा का जनक स्वभाव हो सकता है, भिन्न भिन्न प्रतिभा जनक अनेक स्वभाव एक ही शब्द में कैसे हो सकता है ?
यदि प्रतिभा को निर्विषय मानेंगे तो उस को बाह्यार्थ के साथ कुछ भी सम्बन्ध न होने से प्रतिभा के द्वारा शब्द से जो बाह्यार्थ में प्रतीति और प्रवृत्ति होती है ये दोनों नहीं हो सकेगी क्योंकि शब्द प्रतिभा के द्वारा तत्तदर्थविषयक है नहीं । ____ अगर ऐसा कहें कि - शब्द से जो स्वविषयक प्रतिभास होता है वह बाह्यार्थस्पर्शी होने पर भी उसमें भ्रान्ति से बाह्यार्थ का अध्यवसाय हो जाने से, इस प्रकार शब्द से प्रतीति और प्रवृत्ति दोनों शक्य है - तो इसका मतलब यह हुआ कि शब्द से जो अर्थबोध होता है वह भ्रमरूप है, अब यहाँ दीखाना पडेगा कि इस भ्रम का बीज = हेत क्या है? अगर विना हेत केही भ्रम होता रहेगा तो ऐसा भम प्रति: के बारे में होता चलेगा । अगर कहें कि (शब्द से प्रतीत होने वाली) पदार्थों में रही हुई परस्पर भिन्नता ही ऐसे भ्रमों का हेतु है तो अब हमारे पक्ष का ही आपने शरण ले लिया क्योंकि हम यही कहते हैं कि परस्पर व्यावृत्ति वास्तव में शब्दवाच्य होती है और उन व्यावृत्तियों के बोध से ही व्यावृत्त अर्थों का भान होता है जिसे आप भ्रम कहते हो।
तदुपरांत, यह मुख्य प्रश्न है कि शब्द के वाच्य रूप में माने जाने वाले ये सभी स्वलक्षणादि अर्थ क्षणिक हैं या अक्षणिक (यानी चिरस्थायी) ? प्रथम पक्ष में संकेत निष्प्रयोजन हो जाने की आपत्ति होगी क्योंकि जिस व्यक्ति को संकेतकाल में देखी है वह व्यवहारकाल में तो गायब हो जाने वाली है। यदि अक्षणिक मानेंगे तो 'नाक्रमात् क्रमिणो भावः' इस प्रमाणवार्तिक की उक्ति के अनुसार वे क्रमिक न होने से, उन से होनेवाले कार्य भी क्रमिक न हो कर एक साथ ही सभी कार्यों की उत्पत्ति प्रसक्त होगी । तात्पर्य, उन पदार्थों से एक साथ ही शब्दवाच्य सभी अर्थों का ज्ञान हो जायेगा।
★ शब्द से अर्थविवक्षा का अनुमान ★ अन्य वादियों का कहना है कि शब्द से वक्ता की अर्थविवक्षा का अनुमान होता है। जैसे कि कहा गया है - 'शब्द से विवक्षा का अनुमान होता है और कुछ नहीं' ।
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