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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ दिस्वरूपस्य च शब्दार्थस्याऽसम्भवः प्राक् प्रदर्शित इति कथं तेनैकीकरणम् ? अपि चायमभिजल्पो बुद्धिस्थ एव । तथाहि – बाह्यार्थयोः (बाह्ययोः) शब्दार्थयोभिनेन्द्रियग्राह्यत्वादिभ्यो भेदस्य सिद्धेस्तयोरैक्यापादनं परमार्थतोऽयुक्तमेवेति बुद्धिस्थयोरेव शब्दार्थयोरेकबुद्धिगतत्वादेकीकरणं युक्तम् । तथाहि - उपगृहीताभिधेयाकारतिरोभूतशब्दस्वभावो बुद्धौ विपरिवर्त्तमानः शब्दात्मा स्वरूपानुगतमर्थमविभागेनान्तःसनिवेशयनभिजल्प उच्यते, स च बुद्धरात्मगत एवाकारो युक्तो न बाह्यः, तस्यैकान्तेन परस्परं विविक्तस्वभावत्वात्, ततश्च बुद्धिशब्दार्थपक्षादनन्तरोक्कादस्य न कश्चिद् भेदः, उभयत्रापि बौद्ध एवार्थः । एतावन्मानं तु भिद्यते - 'शब्दार्थावेकीकृतौ' इति । दोषस्तु समान एव "ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत्" ? [प्र. वा० ३-७१ पृष्ठ २८२] इति । [७ - प्रतिभापदार्थवादिमतनिरसनम् ] प्रतिभापक्षे तु यदि सा परमार्थतो बाह्यार्थविषया तदैकत्र वस्तुनि शब्दादौ विरुद्धसमयावस्थायिनां विचित्राः प्रतिभा न प्राप्नुवन्ति, एकस्यानेकस्वभावाऽसम्भवात् । अथ निर्विषया तदार्थे प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती है जब शब्द का वास्तविक कोई अर्थ हो । पहले ही कह दिया है कि स्वलक्षण, जाति आदि में से कोई भी शब्द का वाच्यार्थ घटता नहीं है तो फिर किस के साथ एकीकरण को मानेंगे ? उपरांत, यह भी ज्ञातव्य है कि 'अभिजल्प' बुद्धि में ही अन्तर्गत है । देखिये - बाह्य शब्द और बाह्य अर्थ दोनों भिन्न भिन्न इन्द्रियों का विषय है - बाह्य शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है जब कि बाह्य अर्थ चक्षु आदि इन्द्रिय का विषय है - इसलिये बाह्य अर्थ और बाह्य शब्द में भेद सिद्ध होने से, उन में एकीकरण सिद्ध करने का प्रयास वास्तव में अयुक्त है । हाँ, बुद्धिगत (अभिजल्पात्मक) शब्द और बुद्धिगत अर्थ - ये दोनों एक ही बुद्धि में अन्त:स्थित होने से उन दोनों का ऐक्य किया जाय तो वह युक्त है । वह इसलिये कि, बुद्धि में विवर्त्तमान शब्द जब अपने शब्दात्मक स्वरूप को गौण बना कर अभिधेयस्वरूप अर्थाकार को धारण कर लेता है और अपने स्वरूप से तादात्म्यापन अर्थ को अपृथग्भाव से बुद्धि में संनिहित करता है तब उसे ही अभिजल्प कहा जाता है। ऐसा अभिजल्पस्वरूप शब्द बुद्धि के स्वगत आकार के रूप में ही घट सकता है, बाह्यपदार्थ रूप में नहीं क्योंकि बाह्यपदार्थ से तो उसका स्वभाव अत्यन्त भिन्न है । जब इस प्रकार अभिजल्पात्मक शब्द बुद्धि में ही अन्त:स्थित है तो फिर जिस छठे पक्ष में बुद्धि को ही शब्द का वाच्यार्थ माना गया है उस पक्ष से इस अभिजल्प पक्ष में क्या अन्तर रहा ? दोनों पक्ष में बुद्धिगत अर्थ ही शब्द का वाच्यार्थ फलित होता है । हाँ भेद है तो सिर्फ इतना ही है कि अभिजल्प पक्ष में 'बुद्धिगत शब्द के बुद्धिगत अर्थ के साथ एकीकरण' की बात है जो बुद्धि-शब्दार्थ पक्षमें नहीं है । दोष तो दोनों पक्ष में समान ही है और वह यही है कि एक बुद्धि या अर्थ से अभिन्न ऐसे शब्द या अर्थ का अन्य बुद्धि या अर्थ के प्रति गमन तो होता नहीं है अर्थात् उस के साथ कोई सम्बन्ध तो होता नहीं तो फिर एक शब्द से संकेत द्वारा वर्तमान में किसी एक अर्थ की प्रतीति होने पर भी अन्य तथाविध शब्द से कालान्तर में अन्य अर्थों की प्रतीति का होना कैसे शक्य होगा ? *७-प्रतिभा शब्दार्थ नहीं है* प्रतिभापक्ष में जो कहा गया है कि - 'शब्द साक्षात् अर्थ का प्रतिपादन नहीं करता किन्तु प्रतिभा को ही जन्म देता है' - यह भी ठीक नहीं क्योंकि यहाँ प्रश्न होगा कि प्रतिभा बाह्यार्थविषयक होती है या नहीं ? यदि प्रतिभा वास्तव में बाह्यार्थ को स्पर्श करती है तो एक ही शब्दादि वस्तु में परस्पर विरुद्ध भिन्न भिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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