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________________ श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम् न चापोहवादिना परमार्थतः किञ्चिद् वाच्यं बुद्ध्याकारोऽन्यो वा शब्दानामिष्यते । तथाहि यदेव शाब्दे प्रत्ययेऽध्यवसीयमानतया प्रतिभासते स शब्दार्थः । न च बुद्ध्याकारः शाब्दप्रत्ययेनाऽध्यवसीयते । किं तर्हि ? बाह्यमेवार्थक्रियाकारि वस्तु । न चापि तेन बाह्यं परमार्थतोऽध्यवसीयते यथातत्त्वमनध्यवसायाद् यथाध्यवसायमतत्त्वाद्, अतः समारोपित एव शब्दार्थः । यच्च समारोपितं तन्न किञ्चिद् भावतोऽभिधीयते शब्दैः । यत् पुनरुक्तम् ' शब्दार्थोऽर्थः स एवेति' तत् समारोपितमेवार्थमभिसन्धाय, बुद्ध्याकारवादिना तु बुद्ध्याकारः परमार्थतो वाच्य इष्यत इति महान् विशेषः । ३६ [ ७ - प्रतिभापदार्थवादिमतम् ] अन्ये त्वाहु:-- “ अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दो न तु बाह्यार्थप्रत्यायकः" इति । शब्दस्य क्वचिद् विषये पुनः पुनः प्रवृत्तिदर्शनमभ्यासः, नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकुला प्रज्ञा प्रतिभा, प्रयोगदर्शनावृत्तिसहितेन शब्देन जन्यते, प्रतिवाक्यं प्रतिपुरुषं च सा भिद्यते, यथैव हांकुशादिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रतिपत्तौ क्रियामाणायां प्रतिभाहेतवो भवन्ति तथा शब्दार्थ ( सर्वेऽर्थ ) वत्त्वसंमता वृक्षादयः शब्दा को शब्दार्थ मानना चाहिये । बुद्धिआकार अध्यवसायविषय के रूप में शाब्दबुद्धि में नहीं भासता किंतु [ आपातत: ] अर्थक्रियाकारि बाह्य वस्तु ही अध्यवसित होती है। परमार्थ से तो वह बाह्य वस्तु भी अध्यवसित नहीं होती, क्योंकि बाह्य वस्तु तो अत्यन्त विलक्षण स्वलक्षणात्मकरूप होती है और उस विशेषरूप से तो अध्यवसाय शाब्दबुद्धि में होता नहीं है । शाब्दबुद्धि में तो सामान्यरूप से अध्यवसाय होता है किन्तु वह पारमार्थिक तत्त्व नहीं है । इस का मतलब यही हुआ कि शब्दार्थरूप से जो अध्यवसित होता है वह वासना से आरोपित यानी कल्पित ही होता है । कल्पित वस्तु तो सर्वथा असत् है इसलिये परमार्थदृष्टि से तो शब्दों के द्वारा कुछ भी प्रतिपादित नहीं होता है। फिर भी पहले जो तद्रूपारोप... कारिका में कहा था कि 'शब्दार्थोऽर्थ स एव' यानी 'बुद्धि आकार ही शब्दार्थ है' वह तो कल्पित अर्थ को लक्ष्य में रख कर ही कहा है । एक ओर अपोहवादी इस प्रकार शब्दवाच्य कुछ भी नहीं मानता, जब कि बुद्धिआकारवादी तो परमार्थरूप से बुद्धिआकार को ही शब्दवाच्य मानता है - यह उन दोनों में महान् अन्तर है । ★ ७ - प्रतिभापदार्थ शब्दार्थ है ★ अन्य लोगों का कहना है कि 'अभ्यास के माध्यम से शब्द प्रतिभा को उत्पन्न करता है, इतना ही तथ्य है और वही वाच्यार्थ है ।' अभ्यास = किसी एक विषय के सम्बन्ध में अमुक शब्द की प्रवृत्ति होती हुी बार बार देखना इस को अभ्यास कहते हैं । प्रतिभा अमुक ही प्रकार के नियत (घटादिरूप) साधन से विशिष्ट जलाहरणादि कर्त्तव्य का बोध करानेवाली प्रज्ञा को प्रतिभा कहते हैं । शब्दप्रयोग के दर्शन की बार बार पुनरावृत्ति के द्वारा शब्द से ही यह प्रतिभा उत्पन्न होती है । मतलब यह हुआ कि शब्द सिर्फ प्रतिभा के उत्पादन में चरितार्थ है । अर्थ के साथ उस का कोई सम्बन्ध नहीं है । भिन्न भिन्न वाक्य से भिन्न भिन्न प्रतिभा उत्पन्न होती है इतना ही नहीं एक वाक्य से भी भिन्न भिन्न श्रोता को भिन्न भिन्न प्रतिभा उत्पन्न होती है । जैसे हाथी, बैल आदि को कुछ अर्थबोध कराते समय अंकुशप्रहार आदि किये जाते हैं तो उन से हाथी आदि को कुछ प्रतिभा उत्पन्न होती है, ( कि अब मुझे रुक जाना चाहिये - चलना चाहिये.....इत्यादि) इसी तरह अर्थसभर माने जाने वाले सभी वृक्षादि शब्द पूर्वाभ्यास के मुताबिक सिर्फ प्रतिभा उत्पादन के हेतु Jain Educationa International - = For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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