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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
ननु चापोहवादिपक्षादस्य को विशेषः ? तथाहि - अपोहवादिनाऽपि बुद्धयाकारो बाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इतीप्यत एव । यथोक्तम् -
• तद्रूपारोपमन्यान्यव्यावृत्त्याधिगतैः पुनः । शब्दार्थोऽर्थः स एवेति वचने न विरुध्यते ॥ इति ।
नैतदस्ति, अयं हि बुद्धयाकारवादी बाह्ये वस्तुन्यभ्रान्तं सविषयं द्रव्यादिषु पारमार्थिकेष्वध्यस्तं बुद्धयाकारं परमार्थतः शब्दार्थमिच्छति न पुनरा(न तु निरा)लम्बनं मिनेष्वभेदाध्यवसायेन प्रवृत्तेन्तिमितरेतरभेदनिबन्धनमभ्युपैति, यदा तु यथाऽस्माभिरुच्यते
[सः] सर्वो मिथ्यावभासोयमर्थे [इतीप्यत एव यथोक्तेष्वेकात्मकग्रहः । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं संज्ञा यदर्यिका ॥ [त०सं० पंजिका पृ० २८५] इति तदा सिद्धसाध्यता । यद् वक्ष्यति -
"इतरेतरभेदोऽस्य बीजं चेत् पक्ष एष नः" ॥ [त०सं० का० ९०४] इति । भेद रहा ? अपोहवादी भी बुद्धिरूप से नहीं किन्तु बाह्यरूप से गृहीत बुद्धि-आकार को ही शब्दार्थरूप मानते हैं। जैसे कि प्रमाणवार्त्तिक में कहा है -
'तद्रूप' यानी अर्थ के अंशभूत अपोह की आरोपगति से यानी 'एक ही है' ऐसे अध्यवसाय से अन्यव्यावृत्त अर्थ की अधिगति यानी बोध होता है इसलिये वह अपोह ही शब्दार्थ है फिर भी वहाँ आरोप के प्रभाव से बुद्धिआकार ही व्यावृत्त अर्थरूप से प्रतीत होने के कारण बुद्धिआकार ही (स एव) अर्थ यानी शब्दार्थ है ऐसा कहने में कुछ विरोध नहीं है ।'
__इस तरह प्रमाणवार्तिक में भी बुद्धिआकार को शब्दार्थ मानने की बात है । तो प्रस्तुत बुद्धिआकार-वादी और अपोहवादी में क्या अंतर पडा ? कुछ नहीं !
उत्तर : नहीं, ऐसा नहीं है । यह जो बुद्धिआकार को शब्दार्थ माननेवाला वादी है वह तो बुद्धिआकार को बाह्यवस्तुस्पर्शी होने से अभ्रान्त, सविषयक और पारमार्थिक सद्भूत द्रव्यादि से सम्बद्ध मानता है और उसे पारमार्थिक शब्दार्थरूप मानता है, काल्पनिक नहीं । जब कि अपोहवादी के मत में अपोहात्मकशब्दार्थ असत् होने से बुद्धिआकार निर्विषयक होता है और भिन्न भिन्न स्वलक्षण में अभेदालम्बी होने से भ्रान्त भी होता है, वह पारमार्थिक स्वलक्षण से जन्य नहीं होता किन्तु विषयविधया परस्पर व्यावृत्ति से जन्य होता है । हाँ - यदि अपोहवादी का तात्पर्य सिर्फ इतना ही कहने में हो कि 'भिन्न भिन्न अर्थों में एकरूपता यानी सामान्यरूपता का ग्रह मिथ्यावभासरूप है' तो यहाँ वह सिद्ध को ही साध्य कर रहा है क्योंकि हम भी ऐसा कहते ही हैं कि - "अर्थों में एकात्मता को विषय करने वाला ग्रहमात्र मिथ्यावभासरूप है और अन्योन्यव्यावृत्ति ही उस का बीज है, संज्ञा यानी शब्द भी उसी अर्थ में यानी सामान्यविषयी ग्रह में संकेतित है" - तथा आगे भी कहा जायेगा कि - "यदि अन्योन्यव्यावृत्ति को उस का बीज मानते हो तो यह तो हमारा ही पक्ष है।
पष्ट बात यह है कि अपोहवादी पारमार्थिक रूप से किसी भी बुद्धिआकार या अन्य किसी चीज को शब्दवाच्य मानता ही नहीं । वह कहता है कि शाब्दबुद्धि में अध्यवसाय के विषयरूप में जो भासता हो उसी • अयं तत्वसंग्रहोद्धृतः श्लोकः अत्र लिपिकारदोषेण कोष्ठगतपाठाधिक्याद्रिकृत इव संजात इति विभावनीयम् । तद्रूपारोपगत्यान्यव्यावृत्त्यधिगतेः पुनः ।
शब्दार्थोऽर्थः स एवेति वचने न विरुध्यते । १६१ । इति प्रमाणवात्तिके। *तस्मान्मिथ्या विकल्पोऽयमर्येष्वेकात्मताग्रहः । इतरेतरभेदोऽस्य बीजं संज्ञा यदर्थिका ॥३॥ इति प्रमाणवार्तिके ।
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