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________________ ३४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् [५ - अभिजल्पपदार्थवादिमतम् ] अन्ये तु ब्रुवते . "शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थः" इति । स चाभिजल्पः 'शब्द एवार्थः' इत्येवं शब्दे अर्थस्य निवेशनम् 'सोऽयम्' इत्यभिसम्बन्धः, तस्माद् यदा शब्दस्यार्थेन सहकीकृतं रूपं भवति तं स्वीकृताकारं शब्दमभिजल्पमित्याहुः । [६ - बुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतम् ] अन्ये तु "बुद्धयारूढमेवाकारं बाह्यवस्तुविषयं बाह्यवस्तुतया गृहीतं बुद्धिरूपत्वेनाऽविभावितं शब्दार्थम्" आहुः । तथाहि - यावद् बुद्धिरूपमर्थेष्वप्रत्यस्तं 'बुद्धिरूपमेव' इति तत्त्वभावनया गृह्यते तावत् तस्य शब्दार्थत्वं नावसीयते तत्र क्रियाविशेषसम्बन्धाभावात् । न हि 'गामानय' 'दधि खाद' इत्यादिकाः क्रियास्तादृशि बुद्धिरूपे सम्भवन्ति, क्रियायोगसम्भवी चार्थः शब्दैरभिधीयते, अतो बुद्धिरूपतया गृहीतोऽसौ न शब्दार्थः, यदा तु बाह्ये वस्तुनि प्रत्यस्तो भवति तदा तस्मिन् प्रतिपत्ता बाह्यतया विपर्यस्तः क्रियासाधनसामर्थ्य तस्य मन्यत इति भवति शब्दार्थः । ★५. अभिजल्पप्राप्त शब्द ही शब्दार्थ है* अन्य कुछ पंडित कहते हैं - 'अभिजल्पत्व को प्राप्त हुआ शब्द ही शब्दार्थ है।' - इस विधान में अभिजल्प का अर्थ यह है कि 'यह वही है' इस प्रकार के अध्यासात्मक अनुसन्धान से 'शब्द ही अर्थ है' इस प्रकार का जो शब्द में अर्थ का अभिनिवेश (यानी शब्द में अर्थ का बौद्धिक एकीकरण) फलत: शब्द का अर्थ के साथ एकीकरणात्मक जो रूप है उस रूप को यानी एकीकरण द्वारा अर्थाकार को धारण कर लेने वाले शब्द को ही 'अभिजल्पत्व को प्राप्त हुआ' (ऐसा) कहा जाता है । इसलिये वह अभिजल्पात्मक शब्द ही शब्दार्थ है । तात्पर्य, अर्था भेदारोपारूढ जो शब्द है वही शब्दार्थ है। ★६ - बाह्यवस्तुरूप से अध्यस्त बुद्धिगताकार शब्दार्थ ★ ____अन्य पंडितों का कहना है कि - बुद्धि में आरूढ जो बाह्यवस्तुविषयक अर्थाकार होता है वही जब बुद्धिरूप से अज्ञात रहकर बाह्य वस्तुरूप से ही भासता है तब शब्दार्थ कहा जाता है । जैसे सोचिये - बुद्धिरूप वह अर्थाकार जब बाह्यवस्तुरूप में न भासता हुआ 'यह तो बुद्धिरूप ही है' इस प्रकार के तात्त्विक दर्शन से बुद्धिरूप से यानी स्व-रूप से ही पहचाना जाता है तो उस में शब्दार्थता का भास नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धिरूप से अवगत अर्थाकार में वास्तविक या आभिमानिक आनयनादि क्रियाविशेष का सम्बन्ध विद्यमान ही नहीं होता । 'गौ को लाओ' 'दहीं को खाओ' यहाँ लाने की या खाने की क्रिया जो भासित होती है वह बुद्धि में तो हो नहीं सकती । दूसरी और यह हकीकत है कि शब्दों से ऐसा ही अर्थ प्रतिपादित होता है जिस में क्रियासम्बन्ध का सम्भव हो । इसलिये बुद्धिरूप जब स्व-रूप से पहचाना जाय तब तो शब्दार्थरूप नहीं हो सकता । किन्तु जब वह भासमान (बद्धिरूप) आकार बाह्यवस्त में ही होने का अभिमान हो जाय तब ज्ञाता को बाह्य वस्तुरूप से ही उस का भ्रमज्ञान होता है, अत: उस वक्त उस में लाने-खाने की क्रिया का सामर्थ्य भी ज्ञाता मान बैठता है । इस लिये बाह्यवस्तुरूप से ज्ञात बुद्धिरूप आकार ही शब्दार्थ हो सकता है । ★ बुद्धिगताकारवाद और अपोहवाद में भेद ★ प्रश्न : 'बुद्धिआकार शब्दार्थरूप है' यह मत और 'अन्यापोह ही शब्दार्थ है' यह मत इन दोनों में क्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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