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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ [ ३. असत्यसम्बन्धपदार्थवादिमतम् ] अपरे "द्रव्यत्वादिभिरनिर्धारितरूपैर्यः सम्बन्धो द्रव्यादीनां स शब्दार्थः"" स च सम्बन्धिनां शब्दार्थत्वेनासत्यत्वादसत्य इत्युच्यते । यद्वा तप:श्रुतादीनां मेचकवर्णवदैक्येन भासनादेषामेव परस्परमसत्यः संसर्गः । तथाहि - एते प्रत्येकं समुदिता वा न स्वेन रूपेणोपलभ्यन्ते किन्त्वलातचक्रवदेषां समूहः स्वरूपमुत्क्रम्यावभासते इति । [४. असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतम् ] अन्ये त्वाहः “यद् असत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थः" तत्र स(१) शब्दार्थत्वेनाऽसत्या उपाधयो विशेषा वलयाऽङ्गुलीयकादयो यस्य सत्यस्य सर्वभेदानुयायिनः सुवर्णादिसामान्यात्मनस्तत् सत्यमसत्योपाधि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयम् । पदार्थों में से एक एक का भिन्न भिन्न स्वरूप से निर्देश करना । जैसे कि, धव को भी देखो और खदिर को भी देखो - यहाँ एक ही दर्शनक्रिया में कर्मरूप से अन्वित होने वाले नियत अनेक पदार्थ धव और खदिर का भिन्न भिन्न स्वरूप से निर्देश किया गया है । वन और ब्राह्मण शब्द को बोलने पर अनियत रूप से या नियत एक एक रूप से धवादि की अथवा तपादि की वैकल्पिक या समुच्चयरूप से नहीं किंतु उस से सर्वथा विलक्षण समग्रतारूप से ही प्रतीति होती है, यह बात लोगों में भी प्रसिद्ध है । ★३-असत्यसम्बन्ध और ४ - असत्योपाधिसत्य शब्दार्थ★ __ अन्य विद्वानों का यह कहना है कि विवादास्पद स्वरूपवाले द्रव्यत्व जाति आदि के साथ जो द्रव्यादि का सम्बन्ध माना जाता है वही शब्द का वाच्यार्थ है । इस सम्बन्ध को असत्य कहा जाता है, क्योंकि उस के सम्बन्धिभूत द्रव्यत्वादि शब्दार्थरूप न होने से, शब्दार्थरूप से वे सत्य नहीं है। यही कारण है कि उन का सम्बन्ध भी सत्य नहीं है। अथवा शब्द से जो तप-जाति-श्रुत आदि का भान होता है वह न तो एक एक का पृथक् पृथक् रूप से होता है, न तो समुदायान्तर्गत एक एक समुदायि के रूप में होता है, किन्तु रंगबीरंगे वर्गों की भाँति सब मिल कर एकात्मक रूप से भासित होते हैं। इसलिये उनके परस्पर संसर्ग को असत्य कहा जाता है। जैसे अलातचक्र में एक ही ज्वाला होती है किन्तु परिभ्रमण के कारण असत्यभूत अनेक ज्वालाओं का एकरूप में भास कराने वाला असत्यभूत संसर्ग भासित होता है । वैसे ही असत्य द्रव्यत्वादि का द्रव्य के साथ असत्य संसर्ग शब्द से भासित होता है । कुछ विद्वान कहते हैं - असत्य उपाधियों के अन्तर्गत जो सत्य छीपा रहता है वही शब्दार्थरूप है । तात्पर्य यह है कि वलयावस्था, अंगुठी अवस्था इत्यादि जो सुवर्ण के विशेष पर्याय होते हैं वे असत्य उपाधि रूप है क्योंकि अस्थायी होते हैं इसी लिये शब्दार्थरूप नहीं है। जब कि उन सभी विशेषों में अन्तर्गत सामान्यरूप सुवर्ण सत्य होता है क्योंकि वह त्रिकालस्थायी होता है । इसलिये असत्य उपाधियों में छीपा हुआ जो सत्य है वही शब्द का प्रवृत्ति निमित्त है, वाच्यार्थ है । यानी सर्वभेदानुगत जो सामान्य है वही शब्दार्थ है । ..स चात्र तव्यतिरेकेणानुपलम्भादसत्यभूत एवोच्यते -[वाक्यप. का २५. २१.सोक १२६ पुण्यराजटीका) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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