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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
यथाभ्यासं प्रतिभामात्रोपसंहारहेतवो भवन्ति न त्वर्थं साक्षात् प्रतिपादयन्ति, अन्यथा हि कथं परस्परव्याहताः प्रवचनभेदा उत्पाद्यकथाप्रबन्धाच स्वविकल्पोपरचितपदार्थभेदद्योतकाः स्युरिति ?
[१ - अस्त्यर्थवादिमतनिरसनम् ] अत्र प्रतिविदधति - यद्यस्त्यर्थः पूर्वोदितस्वलक्षणादिस्वभाव ईष्यते तदा पूर्वोदितदोषप्रसंगः । किं च, अनिर्धारितविशेषरूपत्वादस्त्यर्थस्य तस्मिन् केवले शब्दैः प्रतिपाद्यमाने 'गौः' 'गवयः' 'गजः' इत्यादिभेदेन व्यवहारो न स्यात् तस्य शब्दैप्रतिपादितत्वात् । न च गोशब्दात् गोत्वविशिष्टस्यार्थस्य सत्तामात्रस्य शाबलेयत्वादिभेदरहितस्य प्रतीतेर्भेदेन व्यवहारो भविष्यतीति प्रतिपादयितुं शक्यम्, अभ्युपगमविरोधात् - गोशब्दादस्त्यर्थमात्रपरित्यागेन गवादिविशेषस्य प्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । अथ विषाणादेविशेषस्य होते हैं । अर्थों के साथ उनका निरूपणादि कोई सम्बन्ध नहीं होता । अगर वास्तव में ही शब्द किसी नियत अर्थ का निरूपण करने वाला होता तो भिन्न भिन्न दर्शनों में जो एक ही शब्द का परस्परविरुद्ध अर्थ समझा जाता है यह कभी न होता, एवं अपने अपने अभिप्रायों के अनुसार रचे गये (यानी माने गये) पदार्थों में भेद का सूचक जो विविध नविन नविन कथा-प्रबन्ध देखे जाते हैं वे भी कैसे होते ?
★१ - अस्ति अर्थ शब्दार्थ नहीं है* उपरोक्त सात मतों का अब निरसन क्रमश: दीखाते हुए कहते हैं -
शब्द का जो ‘अस्ति' रूप अर्थ बताया है वह पूर्वोक्त स्वलक्षणादिरूप [यानी स्वलक्षण, जाति, जातियोग, जातिमान या बुद्धिआकार] अभिप्रेत हो तब तो उन में जो पहले दोष कहा गया है (१७८-२५) संकेत का असम्भव - वह यहाँ भी लब्धावकाश रहेगा । तदुपरांत मात्र 'अस्ति' रूप अन्तिमसामान्य मात्र को ही शब्द वाच्य मानेंगे तो 'गो' आदि विशेषरूप का अवधारण न होने से लोक में जो गौ - गवय - हस्ति इत्यादि का भिन्न भिन्न व्यवहार होता है वह अशक्य बन जायेगा क्योंकि शब्द से गोत्वादि विशेषरूप का भान तो होता नहीं । यदि ऐसा कहें कि - "शब्द का सामान्य अर्थ सत्तामात्र होने पर भी गोशब्द से गोत्वविशिष्ट सत्तामात्ररूप अर्थ की प्रतीति होती है उस समय श्वेत या काला ऐसा विशेषरूप प्रतीत नहीं होता है - इसलिये प्रतिनियत श्वेत या काले गोपिंड का व्यवहार न होने पर भी गोत्वविशिष्ट का भिन्न व्यवहार हो सकेगा' - तो यह कहना भी आपके लिये अशक्य है -- क्योंकि आपने शब्दमात्र से सिर्फ 'अस्ति' रूप अर्थ की ही प्रतीति होने का कहा है उसके साथ विरोध होगा, क्योंकि अब तो आपने गोशब्द से 'अस्ति' मात्र अर्थ को छोड कर गोत्वादिविशेष अस्ति - अर्थ का प्रतिपादन मंजुर कर लिया।
यदि ऐसा कहें कि - "गोशब्द से विषाणादि अवयवविशेष की प्रतीति न मान कर सिर्फ 'गो के अस्तित्व' को ही हम गोशब्द का वाच्य मानते हैं' - तो इस का मतलब यह हुआ कि आप को गोशब्द से गोत्वविशिष्ट अस्ति-अर्थ का प्रतिपादन मंजुर है । तात्पर्य यह हुआ कि आप गोत्वादि जातिवान् अर्थ को शब्दवाच्य मानते हैं। किन्तु आप जानते हैं कि जाति और उस के समवाय सम्बन्ध का पहले ही हमने निषेध कर दिया है, इसलिये जातिवान् अर्थ ही स्वयं असम्भवग्रस्त है तो 'उसमें संकेत का असम्भवरूप पूर्वोक्त दोष जैसा का तैसा है । उपरांत यदि उस जातिवान् अर्थ को आप स्वलक्षणरूप मानेंगे तो उसमें पहले जो दोष दिखाये हैं - संकेत का असम्भव, व्यवहारबाह्यता और स्पष्टावभास का न होना वे यहाँ भी गले पडेंगे । अगर उस जातिवान् अर्थ
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