SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् नाप्यनैकान्तिकता । अपि च, व्यक्तिर्द्रव्य-गुणविशेषकर्मलक्षणा, आकृतिश्च संयोगात्मिका, एते च द्रव्यादयः प्रतिषिद्धत्वाद् असन्तः कथं शब्दार्थतामुपयान्ति ? . [२-४ जाति-तद्योग-तद्वत्सु संकेताऽसम्भवप्रदर्शनम् ] एवं स्वलक्षणवज्जाति-तद्योग-जातिमत्स्वपि जात्यादेरसम्भवात् समयाऽसम्भवः । यथा च जातेस्तद्योगस्य च समवायस्याऽसम्भवस्तथा प्रागेव प्रतिपादितम्, जाति तद्योगयोश्चाभावे तद्वतोऽप्यसम्भव एव तत्कृतत्वात् तद्वयपदेशस्य, तद्वतच स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभावी दोषः समान एव । [पदवाच्यविषयाणि वाजध्यायन-व्याडि-पाणिनीनां मतानि ] 'जातिः पदार्थः' इति वाजध्यायनः । 'द्रव्यम्' इति व्याडिः । 'उभयम्' पाणिनिः । तदप्यनेनैव निरस्तम् जातेरयोगाद् द्रव्यस्य च स्वलक्षणात्मकत्वात् तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तेः । को 'समानप्रतीतिजन्म'रूप ही कहा है किन्तु बहुव्रीहीसमास करने से उस का तात्पर्य है - समान प्रतीति की उत्पत्ति का जो कारण है वही जाति है । अब बौद्धवादी कहता है कि उक्त रीति से नैयायिकों ने जो जाति-आकृति और व्यक्ति को पदवाच्य कहा है, उसमें व्यक्ति और आकृति में पदवाच्यत्व का निराकरण तो स्वलक्षण में पदवाच्यत्व का निरसन करने से ही सम्पन्न हो जाता है। संकेत का सम्भव न होने के कारण जैसे स्वलक्षण पदवाच्य नहीं हो सकता उसी तरह व्यक्ति और आकृति में भी संकेत का सम्भव न होने से पदवाच्य संगत नहीं है । 'संकेत का सम्भव न होने से' यह हेतु व्यक्ति और आकृति रूप पक्ष में न तो असिद्ध है, न तो साध्यद्रोही है। विशेष तो यह कहना है कि न्यायमत में जो द्रव्य, गुणविशेष और कर्म रूप व्यक्ति तथा संयोगात्मक आकृति माने गये हैं उन का यदि परीक्षण करे तो वे सद् रूप से सिद्ध ही नहीं होते इसलिये उन का प्रतिषेध फलित होता है और प्रतिषेध हो जोने से जब उनकी सत्ता ही सिद्ध नहीं है तो फिर उन में पदवाच्यत्व की तो बात ही कहाँ ? ★जाति आदि में संकेत का असम्भव ★ स्वलक्षण की तरह जाति, जातिसम्बन्ध और जातिमानों में भी संकेत का सम्भव नहीं है क्योंकि जाति आदि स्वयं ही असम्भवग्रस्त हैं । जाति और उसका समवायसम्बन्ध क्यों असम्भवग्रस्त हैं यह बात पहले खंड में (पृ.४५२ और पृ. ४३०) हो चुकी है। जब जाति और उसका सम्बन्ध ही असम्भवग्रस्त है तो जातिमान् तो सुतरां असम्भवग्रस्त हो जाता है क्योंकि जाति का सम्भव होने पर ही 'जातिमान्' ऐसा व्यवहार हो सकता है । कदाचित् जातिमान् को सत् मान ले तो वह स्वलक्षणरूप ही होगा और स्वलक्षण में तो संकेत का असम्भव दिखाने के लिये जो दोष कहा है वह जातिमान् को भी समानरूप से लगेगा । ___ वाजध्यायन मत है कि जाति ही पदार्थ है । व्याडि के मत से द्रव्य ही पदार्थ है । पाणिनि के मत से जाति और द्रव्य दोनों ही पदार्थ हैं । ये तीनों ही मत पूर्वोक्त संदर्भ से निरस्त हो जाते हैं । जाति का तो सम्भव ही नहीं है और द्रव्य स्वलक्षणरूप होने पर जो दोष स्वलक्षण को पदवाच्य मानने में कहा है वह यहाँ भी लागू होता है। ★ बुद्धि-आकार में संकेत का असम्भव ★ अगर ऐसा माने कि 'बुद्धि के आकार में संकेत हो सकता है तो यह भी असार है । कारण, बुद्धि का आकार बुद्धि के स्वरूप की तरह बुद्धि के साथ तादात्म्यापन ही होता है, इसलिये उस में किये हुओ संकेत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy