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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ अस्य भाष्यम् - "यया जातिर्जातिलिङ्गानि च व्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् सा च सत्त्वावयवानाम् तदवयवानां च नियतो व्यूहः ।" [न्याय. भा० पृ. २२५] 'व्यूह' शब्देन संयोगविशेष उच्यते, नियतग्रहणेन कृत्रिमसंयोगनिरासः । तत्र जातिलिङ्गानि प्राण्यवयवाः शिरःपाण्यादयः - तैर्हि गोत्वादिलक्षणा जातिर्लिङ्गयते, आकृत्या तु कदाचित् साक्षाज्जातिय॑ज्यते यदा शिरःपाण्यादिसंनिवेशदर्शनाद् गोत्वं व्यज्यते, कदाचिज्जातिलिङ्गानि यदा विषाणादिभिरवयवैः पृथक् पृथक् स्वावयवसंनिवेशाभिव्यक्तैर्गोत्वादिय॑ज्यते, तेन जातेस्तल्लिङ्गानां च प्रख्यापिका भवत्याकृतिः। जातिशब्देनाभिन्नाभिधानप्रत्ययप्रसवनिमित्तं सामान्याख्यं वस्तूच्यते । तथा च सूत्रम् – “समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जातिः" [न्यायद० २-२-६८] इति समानप्रत्ययोत्पत्तिकारणं जातिरित्यर्थः ।। तत्र व्यक्त्याकृत्योः एतेनैव स्वलक्षणस्य शब्दार्थत्वनिराकरणेन शब्दार्थत्वं निराकृतम् । तथाहियथा स्वलक्षणस्याऽकृतसमयत्वादशब्दार्थत्वं तथा तयोरपीति 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेतो ऽसिद्धिः, होने से उस को मूर्ति भी कह सकते हैं । [इस प्रकार 'व्यक्ति' शब्द का अर्थ कथन समाप्त हुआ, अब ‘आकृति' शब्द का अर्थ दिखाते हैं] ★ भाष्यकारमत से आकृति का स्वरूप ★ प्राणिवर्ग के हस्त-पादादि अवयवों का तथा उन अवयवों के अंगुली आदि उपांगो का संयोग, आकृतिशब्द से यहाँ लक्षित है । सूत्र में ही कहा है “आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या'' [न्यायद० २-२-६७] इति । इस सूत्र का अर्थ करते हुए भाष्य में कहा है कि जिस से जाति और जातिव्यञ्जकलिंग पीछाने जाते हैं वही आकृति है ऐसा समझना । मतलब यह है कि प्राणी के हस्तादि अवयव और उनके अंगुली आदि उप-अवयवों का जो नियत [यानी विशिष्ट प्रकार का] व्यूह, यही आकृति है । व्यूह यानी संयोगविशेष । यहाँ नियत व्यूह को ही आकृति कहा है इस में नियतपद से कृत्रिम संयोग का व्यवच्छेद हो जाता है । कृत्रिम संयोग यानी जन्मजात जो अंगुली आदि का कूदरती संयोग होता है वैसा नहीं किन्तु एक हस्त की अंगुली का अन्य हस्त की अंगुलीयों से संयोजन इत्यादि, ऐसा कृत्रिम व्यूह यहाँ ‘आकृति' शब्द से नहीं लेना है । शीर्ष हस्त पैर आदि प्राणि-अवयवों को जातिलिंग कहते हैं क्योंकि उन से गोत्व, अश्वत्व आदि जाति का लिंगन (यानी अभिव्यक्ति) होता है । आकृति से कभी तो साक्षात् जाति की अभिव्यक्ति होती है । उदा० शीर्ष हस्त आदि अवयवों की विशिष्टरचना को देखने से गोत्व का भान होता है। कभी तो आकृति से जातिलिंग की अभिव्यक्ति और उस के द्वारा गोत्वादि की अर्थात् परम्परा से अभिव्यक्ति होती है, उदा० विषाणादि के अवयवों की अपनी अपनी रचना से यानी आकृति से प्रथम जातिलिंगरूप विषाणादि की अभिव्यक्ति होती है और उन विषाणादि की अभिव्यक्ति से गोत्वादि की अभिव्यक्ति होती है । इस प्रकार आकृति ही जाति और जातिलिंगो की अभिव्यञ्जिका होती है। *जाति आदि में पदवाच्यत्व का निषेध* व्यक्ति और आकृति की बात हो चुकी, अब जाति की बात करते हैं । भिन्न भिन्न वस्तुओं के लिये समान नामप्रयोग एवं समान प्रतीति में जो निमित्तभूत 'सामान्य' अपरनाम वाला तत्त्व होता है वही जाति शब्द से यहाँ अभिप्रेत है। सूत्र में कहा है - 'समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जाति:' । हालाँकि यहाँ जाति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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