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द्वितीयः खण्डः-का०-२
[ बुद्धयाकारे समयाऽसम्भवसाधनम् ] बुद्धयाकारेऽपि न समयः सम्भवति, तस्य बुद्धितादात्म्येन व्यवस्थितत्वाद् नासौ तद्बुद्धिस्वरूपवत् प्रतिपाद्यमर्थ बुद्धयन्तरं वानुगच्छति, ततश्च संकेतव्यवहारकालाऽव्यापकत्वात् स्वलक्षणवत् कथं तत्रापि समयः ? भवतु वा तस्य व्यवहारकालान्वयस्तथापि न तत्र समयो व्यवहर्तृणां युक्तः । तथाहि - 'अपि नामेतः शब्दादर्थक्रियार्थी पुमानर्थक्रियाक्षमानर्थान् विज्ञाय प्रवर्तिष्यते' इति मन्यमानैव्यवहर्तृभिरभिधायका ध्वनयो नियोज्यन्ते न व्यसनितया, न चासौ विकल्पो बुद्धयाकारोऽभिप्रेतशीताऽपनोदादिकार्य तदर्थिनः सम्पादयितुमलम् तदनुभवोत्पत्तावपि तदभावात् तेन तत्रापि समयाभावान्नासिद्धः 'अकृतसमयत्वात्' इति हेतुः ।
[१-अस्त्यर्थवादिमतम् ] 'अथ अस्त्यर्थादयोऽपरे शब्दार्थाः सन्ति, ततश्च तत्र समयसम्भवादसिद्धतैव हेतोः । तथाहि'अस्त्यर्थः' इति यदेतत् प्रतीयते तदेव सर्वशब्दानामभिधेयं न विशेषः, यथैव ह्यपूर्व-देवतादिशब्दा का प्रतिपादनकाल में प्रतिपाद्य अर्थ में या अन्य बुद्धि-आकार में अनुगमन या क्रमण संभव ही नहीं है । फलत: संकेतकाल में बुद्धि-आकार में किया गया संकेत व्यवहारकाल तक व्यापक न होने से निरर्थक ही रहेगा जैसे कि क्षणिक स्वलक्षण के लिये पहले कहा गया था । जब इस प्रकार संकेत निष्फल होगा तो फिर बुद्धि-आकार में संकेत कैसे मान्य हो सकता है ? कदाचित् मान लिया जाय कि संकेत व्यवहारकाल तक अनुगामी है फिर भी व्यवहारकर्ताओं के बीच बुद्धिआकार में संकेत की मान्यता युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती । देखिये, व्यवहारी लोग सिर्फ व्यसनमात्र से शब्दध्वनियों का प्रयोग नहीं करते हैं किन्तु "हमारे कहे हुए ‘अग्नि' आदि शब्दप्रयोग को सुन कर शीतादिअपनयन रूप अर्थक्रिया का अर्थी श्रोताजन शीतादिअपनयन के लिये समर्थ 'अग्नि' आदि अर्थ को जानेगा और उस के लिये प्रवत्ति करेगा" ऐसा समझ कर ही व्यवहारी लोग अर्थप्रतिपादक शब्दों का प्रयोग करते हैं । यदि 'अग्नि' आदि शब्दों का संकेत बुद्धि-आकार स्वरूप विकल्प में ही मानेंगे तो श्रोता को अग्नि आदि शब्द से बुद्धि-आकार का ही भान होगा और प्रवृत्ति भी उस के लिये ही होगी न कि बाह्य 'अग्नि' के लिये । सब जानते हैं कि बुद्धि-आकार स्वरूप 'अग्नि' से कभी भी शीतअपनयन आदि वांछित कार्य के अर्थी को उस कार्य का सम्पादन शक्य नहीं है क्योंकि बुद्धि-आकार का अनुभव होने पर भी उस के लिये प्रवृत्ति और उस के द्वारा वांछितकार्य की उत्पत्ति होती नहीं है । निष्कर्ष, बुद्धिआकार में भी संकेत का सम्भव न होने से हमने जो पहले हमारे अनुमानप्रयोग में 'अकृतसमयत्व' हेतु कहा है वह असिद्ध नहीं है ।
★ शब्दों का प्रतिपाद्य है अस्ति-अर्थ★ अब अस्ति-अर्थ, समुदायरूप अर्थ....इत्यादि को शब्दार्थ मानने वाले अलग अलग सात मतवादियों का क्रमश: कहना है कि - अस्ति अर्थ......इत्यादि ही शब्दवाच्य अर्थ है और उन के वाचक शब्दों में संकेत की पूरी सम्भावना होने से 'अकृतसमयत्व' यह हेतु असिद्ध है।
प्रथम अस्ति-अर्थवादी कहता है 'अस्ति अर्थः' 'कुछ अर्थ है' ऐसा जो शब्द श्रवण के बाद अर्थसामान्य प्रतीत होता है वही शब्दमात्र का प्रतिपाद्य अर्थ है, और कोई विशेष पदार्थ शब्द का वाच्य नहीं होता । उदा० .. अस्त्यादिवादिमतानि वाक्यपदीये द्वितीयकांडे श्लो० ११७ त: १३२ मध्ये दृष्टुमर्हाणि ।
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