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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
“अन्यथैवाऽग्निसम्बन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते । न च यो यत्र न प्रतिभाति स तद्विषयोऽभ्युपगन्तुं युक्तः अतिप्रसंगात् । तथा च प्रयोगः 'यो यत्कृतप्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः, यथा रूपशब्दजनिते प्रत्यये रसः, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यये स्वलक्षणम्' इति व्यापकानुपलब्धिः । अत्र चातिप्रसंगो बाधकं प्रमाणम् । तथाहि शब्दस्य तद्विषयज्ञानजनकत्वमेव तद्वाधकत्वमुच्यते नान्यत्, न च यद्विषयं ज्ञानं यदाकारशून्यं तत् तद्विषयं युक्तम् अतिप्रसंगात् । न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति स्पष्टमस्पष्टं च येनास्पष्टं वस्तुगतमेव रूपं शब्दैरभिधीयते, एकस्य द्वित्वविरोधात् । भिन्नसमयस्थायिनां च परस्परविरुद्धस्वभावप्रतिपादनात्र शब्दगोचरः स्वलक्षणम् । 'उष्ण' आदि शब्द से उत्पन्न बुद्धि में उष्णतादि का स्पष्ट भान नहीं होता है । तथा अविनष्ट चक्षुवाले लोगों के नेत्र से उत्पन्न बुद्धि में बीजोरा आदि फलों का जैसा रूपादिविशिष्ट भान होता है वैसा रूपादिविशिष्ट अनुभव, नष्टचक्षुवाले लोगों को 'बीजोरा' आदि शब्द के श्रवण से नहीं होता है ।
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वाक्यपदीयग्रन्थ में कहा है कि " अग्नि के सम्बन्ध' से जो जलन का अनुभव जलनेवाले को होता है और जो 'दाह' (जलन) शब्द से ज्वलनरूप अर्थ का बोध होता है - ये दोनों सर्वथा भिन्न होते हैं ।"
मतलब यह है कि जो वास्तविक अर्थ होता है वह तो शब्दबुद्धि में भासता नहीं । तब जिस प्रतीति में जो नहीं भासता है उस को उस प्रतीति का विषय नहीं मानना चाहिये, अगर मानेंगे तो अश्व की प्रतीति होने पर गधे को उस का विषय मानना पडेगा - यह अतिप्रसंग होगा । यहाँ व्यापकानुपलब्धिरूप अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है - जिस से जन्य प्रतीति में जो नहीं भासता है वह उस से जन्य प्रतीति का विषयभूत नहीं होता । जैसे, 'रूप' शब्द से जन्य प्रतीति में रस नहीं भासता है तो रस 'रूप' शब्दजन्य प्रतीति का विषयभूत नहीं होता है । शब्दजन्य प्रतीति में स्वलक्षण भासता नहीं है । ( इसलिये स्वलक्षण को शब्दजन्य प्रतीति का विषयभूत नहीं होना चाहिये ।) इस अनुमानप्रयोग में तत्प्रतीतिविषयत्व व्याप्य है और तत्प्रतीतिप्रतिभास व्यापक है, इस व्यापक की अनुपलब्धि रूप हेतु से व्याप्य का अभाव सिद्ध किया गया है । यदि कोई पूछे कि 'तत्प्रतिभास के न रहने पर भी तद्विषयता मानने में कौन सा बाधक प्रमाण है ?' तो अतिप्रसंग ही इस विपक्षबाधक पृच्छा का प्रत्युत्तर है । तात्पर्य यह है कि 'तद्विषय के ज्ञान का जनक होना यही शब्द का 'तद्वाचकत्व' कहा जाता है दूसरा कुछ नहीं, किन्तु जिस (घट) विषय का ज्ञान जिस (पट) के आकार से शून्य होता है, वह (घट) ज्ञान तद्विषयक ( पटविषयक ) मानना संगत नहीं है क्योंकि तब तो गर्दभाकारशून्य अश्वविषयक ज्ञान को भी गर्दभविषयक मानने का अतिप्रसंग खडा ही है ।
यदि कहें कि ' वस्तु के दो वास्तविक रूप होते हैं, एक स्पष्ट और दूसरा अस्पष्ट । इनमें दूसरा जो वास्तविक अस्पष्ट रूप है वही शब्दवाच्य होता है' तो यह भी ठीक नहीं है । कारण, एक वस्तु के परस्पर विलक्षण दो रूप होते नहीं है क्योंकि एक वस्तु में विलक्षण दो रूप विरोधग्रस्त है । यदि कहें कि - स्पष्ट और अस्पष्ट ये दो रूप समसामयिक नहीं होते, प्रथम क्षण में स्पष्ट रूप होता है और जब दूसरे क्षण में शब्दप्रयोग किया जाता है उस क्षण में अस्पष्टरूप होता है - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि शब्दप्रयोग तो प्रथमक्षण के स्पष्टरूपवाले स्वलक्षण के प्रतिपादन के अभिप्राय से किया जाता है, और प्रतिपादन तो अस्थिर, स्पष्टरूप से विरुद्ध यानी अस्पष्टरूप स्वभाव का होता है - इस का फलितार्थ तो यही हुआ कि स्वलक्षण शब्द
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