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द्वितीयः खण्ड:-का०-२
[ पदार्थविषये न्यायसूत्रकाराभिप्रायविवेचनम् ] नैयायिकास्तु 'व्यत्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः' [न्यायद० २-२-६५] इति प्रतिपन्नाः । तत्र व्यक्तिशब्देन द्रव्य-गुण-विशेष-कर्माण्यभिधीयन्ते । तथा च सूत्रम् 'व्यक्तिर्गुणविशेषाश्रयो मूर्तिः' [न्यायद० २-२-६६] इति ।
अस्यार्थो वार्त्तिककारमतेन - "विशिष्यते इति विशेषः, गुणेभ्यो विशेषो गुणविशेषः कर्माभिधीयते, द्वितीयश्चात्र गुणविशेषशब्द एकशेषं कृत्वा निर्दिष्टः तेन गुणपदार्थो गृह्यते - गुणाश्च ते विशेषाच गुणविशेषा: विशेषग्रहणमाकृतिनिरासार्थम् । तथाहि- आकृतिः संयोगविशेषस्वभावा, संयोगश्च गुणपदार्थान्तर्गतः ततश्चासति विशेषग्रहणे आकृतेरपि ग्रहणं स्यात्, न च तस्या व्यक्तावन्तर्भाव ईष्यते पृथक् स्वशब्देन तस्या उपादानात् । आश्रयशब्देन द्रव्यमभिधीयते - तेषां गुणविशेषाणामाश्रयस्तदाश्रयो द्रव्यमित्यर्थः । का विषय नहीं बन सकता ।।
* नैयायिक मत से व्यक्ति आदि पदार्थ ★ "व्यक्ति-आकृति-जातय: तु पदार्थः' इस न्यायदर्शन के सूत्र अनुसार नैयायिकवादी कहते हैं कि व्यक्ति, आकृति और जाति ये पद के वाच्यार्थ हैं । यहाँ व्यक्ति शब्द से द्रव्य, गुणविशेष और कर्म का ग्रहण किया गया है। न्यायदर्शन का ऐसा सूत्र भी है - 'व्यक्ति: गुणविशेषाश्रयो मूर्तिः' इस सूत्र का अर्थ वार्तिककार के मत से निम्न प्रकार से है - ___गुणविशेष शब्द में 'विशेष' शब्द की कर्म अर्थ में व्युत्पत्ति 'विशिष्यते इति विशेष:' ऐसी है । 'गुणों से विशेष' (यानी गुणों से भिन्न, गुण जैसा पदार्थ) ऐसा समासविग्रह करने से यहाँ 'गुणविशेष' शब्द का फलितार्थ कर्म (यानी क्रिया) है । हालाँकि सूत्र में 'गुणविशेष' शब्द एक बार ही आया है किन्तु व्याकरणसूत्र के अनुसार यहाँ 'गुणविशेषश्च गुणविशेषश्च' ऐसा एकशेष समास मान लेने से दो गुणविशेष शब्द की प्राप्ति होती है । उन में से एक का अर्थ हो गया। दूसरे गुणविशेष शब्द से गुणपदार्थ का ही ग्रहण करना है, वह कर्मधारय समास से प्राप्त होता है 'गुणाश्च ते विशेषाश्च इति गुणविशेषाः' । प्रश्न : यहाँ 'गुण' इतना कहने से भी गुण का ग्रहण हो सकता है फिर 'विशेष' शब्द का प्रयोजन क्या ? उत्तर : ध्यान में रहे कि यहाँ 'व्यक्ति' शब्द की व्याख्या में आये हुए गुणविशेष शब्द का अर्थ किया जा रहा है । और पहले न्यायसूत्र में पद के वाच्यार्थ दिखाते हुए व्यक्ति से आकृति का पृथग् ग्रहण किया है । यदि 'विशेष' शब्द न लिखा जाय तो संयोगविशेषस्वरूप ही आकृति का 'गुण' शब्द से ग्रहण हो जाने पर व्यक्ति में ही उसका अन्तर्भाव हो जाने से 'आकृति' शब्द द्वारा उस का पृथक् ग्रहण असंगत हो जाता है । इसलिये आकृति की व्यावृत्ति करने हेतु 'गुणविशेष' ऐसा कहा है । 'गुणविशेषों का आश्रय मूर्तिरूप व्यक्ति है' इस विधान में आश्रय शब्द से गुणविशेषों के आश्रयरूप में द्रव्य का ग्रहण अभिप्रेत है ।
प्रश्न :- अगर 'गुण विशेषों का आश्रय-गुणविशेषाश्रय' ऐसा षष्ठीतत्पुरुष समास मानेंगे तो सिर्फ द्रव्य का ही व्यक्ति में अन्तर्भाव होगा, गुणविशेषों का कैसे होगा ? x. उपलब्धे न्यायवार्तिक अयं पाठ: अक्षरशो नोपलभ्यते किंतु अर्थतोऽस्ति।
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