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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ २५ नापि शब्दस्वलक्षणस्य । तथाहि - समयकृत् स्मृत्युपस्थापितमेव नामभेदमर्थेन योजयति । न च स्मृतिर्भावतोऽनुभूतमेवाभिलापमुत्यापयितुं शक्नोति तस्य चिरनिरुद्धत्वात्, यं चोच्चारयति तस्य पूर्वमननुभूतत्वान तत्र स्मृतिः, न चाऽविषयीकृतस्तया समुत्थापयितुं शक्यः । अतः स्मृत्युपस्थापितमनुसन्धीयमानं विकल्पनिर्मितत्वेनास्वलक्षणमेवेति न स्वलक्षणत्वेऽस्य समयः । तस्मादव्यपदेश्यं स्वलक्षणमिति सिद्धम् । इतच स्वलक्षणमव्यपदेश्यम् शब्दबुद्धौ तस्याप्रतिभासनात् । यथा हि उष्णाद्यर्थविषयेन्द्रियबुद्धिः स्फुटप्रतिभासाऽनुभूयते न तथोष्णादिशब्दप्रभवा । न ह्युपहतनयनादयो मातुलिङ्गादिशब्दश्रवणात् तद्रूपायनुभाविनो भवन्ति यथाऽनुपहतनयनादयोऽक्षबुद्धयाऽनुभवन्तः । यथोक्तम् - [वाक्यप० २-४२५] था वह तो नष्ट हो गया । इसलिये यहाँ संकेत का संभव नहीं मान सकते । कोई पुरुष अश्व को देखने के बाद उस के नाम का स्मरण तो करे और अश्व में संकेत का अभिप्राय भी करे यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु संकेतकरण काल में अगर अश्व से भिन्न धेनु आदि उपस्थित (संनिहित) हो जाय तो उसमें संकेत करने का अभिप्राय न रहने पर भी संकेतकर्ता उसी धेनु आदि में 'अश्व' ऐसा संकेत करने लग जाय ऐसा कभी नहीं होता। यदि ऐसा कहें कि - "स्वलक्षण सभी समान ही होते हैं अत: उन के साम्य से संकेतकरण क्षण में पूर्व स्वलक्षण क्षण के अभेद का अध्यवसाय होने पर उस में संकेत भी शक्य हो जायेगा" - तो यह गलत बात है । कारण, एक दूसरे से सर्वथा विलक्षण ऐसे स्वलक्षणों में विकल्पबुद्धि से समानता का आरोप ही हुआ, और वही शब्दध्वनियों से प्रतिपादित हो रहा है, इस का मतलब यही हुआ कि स्वलक्षण तो शब्द से अवाच्य ही रहा । निष्कर्ष, स्वलक्षण में किसी भी ढंग से संकेत का सम्भव नहीं रहा । ★ शब्दस्वलक्षण का संकेत असम्भव* अर्थस्वलक्षण में जैसे संकेत का सम्भव नहीं है, वैसे शब्दरूप स्वलक्षण का भी संकेत शक्य नहीं है । देखिये - एक बात निश्चित ही है कि कोई भी संकेतकर्ता उसी नामविशेष की अर्थ के साथ संयोजना कर सकता है जो स्मरण से उपस्थित हो । अब यह सोचना पडेगा कि स्मृति पूर्वानुभूत नाम का या वर्तमान में उच्चारित नाम का उपस्थापन कर सकती है या नहीं ? जो अभिलाप (याने नाम) पूर्व में अनुभूत (यानी उच्चारित) है उस का वर्तमान में उत्थापन शक्य ही नहीं है क्योंकि वह तो स्मरण के पूर्व ही खतम हो चुका है। तथा स्मृति जो पूर्व में अनुभूत न हो उस को तो स्पर्श भी नहीं कर सकती, इसलिये वर्तमान में जो नाम उच्चारित हो रहा है उस का भी स्मरण से उत्थापन कभी शक्य नहीं रहता । इस का मतलब यही हुआ कि स्मृति से उपस्थित होने वाले जिस का अनुसन्धान किया जा रहा है वह न तो पूर्वानुभूत शब्द है, न तो वर्तमान में उच्चारित शब्द है । तब वह कया है ? सिर्फ बुद्धिकल्पित शब्द ही है शब्दस्वलक्षणात्मक वह नहीं है, तो फिर उसका अर्थ के साथ संयोजन रूप संकेत कैसे माना जा सकता है ? निष्कर्ष यही सिद्ध होता है कि स्वलक्षण सर्वथा व्यपदेशअयोग्य है, न तो शब्द से स्वलक्षण का निर्देश हो सकता है, न तो शब्द उस का निर्देशक हो सकता है। ★ स्वलक्षण, शब्द से अव्यपदेश्य★ शब्दजन्यबुद्धि में स्वलक्षण का प्रतिभास नहीं होता, इसलिये भी वह शब्द से अव्यपदेश्य (अवाच्य) मानना चाहिये । स्पर्शनादि इन्द्रियो से उत्पन्न बुद्धि में जैसे उष्णतादि अर्थ रूप विषय का स्फुट प्रतिभास होता है वैसा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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