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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम्
निर्मितार्थविषयत्वेन तस्याऽपारमार्थिकत्वात् । नाप्युत्पन्ने समयो युक्तः, तस्मिन्ननुभवोत्पत्तौ तत्पूर्वके च शब्दभेदस्मरणे सति समयः संभवति नान्यथा - अतिप्रसङ्गात् - शब्दभेदस्मरणकाले च चिरनिरुद्धं स्वलक्षणमिति अजातवज्जातेऽपि कथं समयः समयक्रियाकाले द्वयोरप्यसंनिहितत्वात् ? तपाहि- अनुभवावस्थायामपि तावत् तत्कारणतया स्वलक्षणं क्षणिकं न संनिहितसत्ताकं भवति किं पुनरनुभवोत्तरकालभाविनामभेदाभोगस्मरणोत्पादकाले भविष्यति ?
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नापि तज्जातीये तत्सामर्थ्यबलोपजाते समयक्रियाकालभाविनि क्षणे समयः सम्भवति, तस्याऽन्यत्वात् । यद्यपि समयक्रियाकाले सन्निहितं क्षणान्तरमस्ति तथापि तत्र समयाभोगाऽसम्भवान समयो युक्त:, न ह्यश्वमुपलभ्य तन्नामस्मरणोपक्रमपूर्वकं समयं कुर्वाणस्तत्कालसन्निहिते गवादावाभोगाविषयीकृते ' अश्व:' इति समयं समयकृत् करोति । अथापि स्यात् सर्वेषां स्वलक्षणानां सादृश्यमस्ति तेनैक्यमध्यवस्य समयः करिष्यते, असदेतत्- यतो विकल्पबुद्धयऽध्यारोपितं सादृश्यम् तस्य च ध्वनिभिः प्रतिपादने स्वलक्षणमवाच्यमेवेति न स्वलक्षणे समयः ।
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के पूर्व पदार्थ असत् होता है, असत् पदार्थ उपाख्या= स्वरूप धर्म या संज्ञा मात्र से शून्य होता है, इसलिये उस में संकेत की आधारता घट नहीं सकती । यदि कहें कि ' इस बात में साक्षात् ही विरोध है, चूँकि पुत्रजन्म के पहले ही माता-पिता आदि उस के नाम की कल्पना करते देखे जाते हैं' तो यह बात ठीक नहीं है क्योंकि वहाँ नाम कल्पित होता है पारमार्थिक नहीं होता, हम तो पारमार्थिक संकेत का विरोध करते हैं, इसलिये कोई विरोध नहीं है । कल्पना से कल्पित अर्थ ही उस संकेत का विषय होता है इसलिये वह संकेत भी काल्पनिक हुआ, पारमार्थिक नहीं ।
उत्पन्न पदार्थ में भी संकेत नहीं घट सकता । कारण यह है कि पहले तो जिस अर्थ में संकेत करना है उस के विषय में अनुभव उत्पन्न होना चाहिये, अनुभव होने के बाद उस अर्थ के लिये जिस शब्द का संकेत करना चाहते हैं उस शब्द का स्मरण करना होगा, क्योंकि उस के बिना ही अगर संकेत हो जायेगा तो अस्मृत अन्य भी हजारों शब्दों का संकेत हो जायेगा । फिर जब शब्द का स्मरणकाल आयेगा उस के पूर्व क्षण में ही ( अर्थात् अनुभवक्षण में ही) स्वलक्षण तो नष्ट हो गया होगा । तात्पर्य, जैसे अनागत पदार्थ में संकेत का सम्भव नहीं है तो वैसे उत्पन्न पदार्थ में भी संकेत का सम्भव कैसे होगा ? संकेत क्रिया काल में न तो अनुत्पन्न स्वलक्षण संनिहित है, न तो उत्पन्न स्वलक्षण संनिहित है । देखिये- अनुभव यह कार्यक्षण है और उस का कारण है स्वलक्षण जो पूर्वक्षण में ही हो सकता है और क्षणिक है इसलिये वह अनुभवोत्त्पति क्षण में ही जब सत्ता को खो बैठता है तो फिर अनुभव के पश्चात् होने वाले अभेद का अनुसंधान और शब्दविशेष के उपयोगकाल में उसका स्मरण, यहाँ तक तो वह कैसे स्थिर बना रहेगा ?
★ समानजातीय क्षणान्तर में संकेत का असम्भव ★
अगर ऐसा कहें कि - "स्वलक्षण के उत्तरक्षण में स्वलक्षण स्वयं नष्ट हो जाने से उसमें यद्यपि संकेत यानी संकेतक्रिया के काल में जो उसका
संभव भले न हो, किन्तु उस स्वलक्षण के सामर्थ्यबल से उत्तरकाल में सजातीय क्षण उत्पन्न होगा उसमें ही संकेत का संभव मान लेंगे ।" तो यह सम्भवित नहीं है, क्योंकि जिस स्वलक्षण में संकेत का अभिप्राय था उस से तो यह भिन्न है । कहने का मतलब यह है कि संकेतकरणकाल में यद्यपि अन्य क्षण संनिहित है किन्तु संकेतकर्त्ता का अभिप्राय उस में संकेत करने का नहीं था, जिस में
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