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________________ द्वितीयः खण्ड:-का०-२ अथ स्थिरैकरूपत्वाद् हिमाचलादिभावानां देशादिभेदाभावात् संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वेन समयसम्भवात् पक्षैकदेशाऽसिद्धता प्रकृतहेतोः । नैतत्, हिमाचलादीनामप्यनेकाणुप्रचयस्वभावतया उदयानन्तरापवर्गितया च नाशेषावयवपरिग्रहेण समयकालपरिदृष्टस्वभावस्य व्यवहारकालानुयायित्वेन च समयः सम्भवतीति नासिद्धता हेतोः । अत उक्लन्यायेन समयवैयर्थ्यप्रसङ्गान स्वलक्षणे समयः संभवति । अशक्यक्रियात्वाच्च न तत्र समयः । तथाहि- उदयानन्तरापवर्गिषु भावेषु समयः क्रियमाणः अनुत्पनेषु वा क्रियेत, उत्पन्नेषु वा ? न तावदनुत्पनेषु परमार्थतः समयो युक्तः, असतः सर्वोपाख्यारहितस्याऽ. ऽधारत्वानुपपत्तेः । अपारमार्थिक(व?)स्त्वजातेऽपि पुत्रादौ समय उपलभ्यत इति न दृष्टविरोधः, विकल्प अब आप कहेंगे कि - 'अतीतादि भेद दृष्ट न होने पर भी विकल्पबुद्धि में आरूढ होते हैं, उन विकल्पबुद्धिआरूढ भेंदो में संकेत का ग्रहण मान लेंगे'- तो इस का मतलब यही हुआ कि शब्दसंकेत का विषय कोइ वास्तविक स्वलक्षण तो नहीं है, जो कुछ है वह विकल्पबुद्धि में आरोपित अर्थ यानी काल्पनिक अर्थ ही शब्दसंकेत का विषय बना । देखिये - अतीत या अनागत पदार्थ तो असत् होने से संनिहित ही नहीं है अत: उसके सम्बन्ध में होने वाली विकल्पबुद्धि को परमार्थत: निर्विषयक ही मानना होगा, फिर उस में किया गया संकेत पारमार्थिक वस्तुस्पर्शी कैसे हो सकता है ? निष्कर्ष - अकृतसमयत्व हेतु अनैकान्तिक नहीं है । तथा यह हेतु सपक्ष में रहता है इसलिये पारमार्थिक वस्तुप्रतिपादकत्वाभावरूप साध्य से विरुद्ध भी नहीं है। सपक्ष है अश्वशब्द, वहाँ धेनुनिरूपित अकृतसमयत्व हेतु भी रहता है और परमार्थतः धेनुरूपार्थप्रतिपादकत्वाभाव भी रहता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि स्वलक्षणरूप अर्थ किसी भी शब्द का विषय यानी वाच्य नहीं है । ★ अणुप्रचयात्मक हिमाचलादि में संकेत असम्भव ★ शंका :- 'अकृतसमयत्व' यह हेतु पक्ष के कुछ भाग में असिद्ध है इसलिये उस से अपने साध्य की सिद्धि शक्य नहीं । हिमाचल वगैरह पर्वत पहले भी थे आज भी है और भावि में भी उसे कोई खतरा नहीं है इस लिये वे तो स्थिर स्वभाववाले हैं, न तो उन में देशभेद से भेद है, न कालभेद से । फलत: संकेतकाल में और व्यवहारकाल में अनुवर्तमान रहने से उन हिमाचल वगैरह पदार्थों में अच्छी तरह संकेत किया जा सकता है, तो उनमें अकृतसमयत्व कैसे रहेगा ? उत्तर : शंका ठीक नहीं है । हिमाचल वगैरह कोई एक स्थिर ईकाई नहीं है किन्तु प्रतिक्षण उत्पाद-विनाशशील अनेकानेक परमाणु के पुलस्वरूप है । इस लिये जिन अवयवों को लक्ष में रख कर संकेत काल में संकेत करेंगे वे ही अवयव व्यवहारकाल में तो गायब हो जायेंगे, फलत: संकेत ही निष्प्रयोजन हो जायेगा । इस प्रकार 'अकृतसमयत्व' हेतु हिमाचल वगैरह परमाणुपुओं में भी रहता ही है, असिद्ध नहीं है। उपरोक्त रीति से, व्यवहारकाल तक अस्थायि पदार्थों में किया जाने वाला संकेत व्यर्थ होने की आपत्ति लगी रहने से सिद्ध यही होता है कि स्वलक्षण पदार्थ में संकेत का सम्भव नहीं है । * क्रिया के असम्भव से संकेत का असम्भव ★ संकेत क्रिया शक्य भी नहीं है, इसलिये अर्थ में शब्दसंकेत का सम्भव नहीं है । देखिये - उत्पत्ति के अग्रिमक्षण में ही नष्ट हो जाने वाले पदार्थों में संकेत कब करेंगे ? उस के उत्पन्न होने के पहले या उत्पन्न हो जाय तब ? उत्पन्न होने के पहले, पारमार्थिकरूप से संकेतप्रक्रिया का सम्भव ही नहीं है । कारण, उत्पत्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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