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________________ २२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् समयक्रियासम्भवादकारणमानन्त्यम्' [न्यायवा० २-२-६७ पृ. ३२३] इति - असदेतत्, यतो न सत्तादिकं वस्तुभूतं सामान्यं तेभ्यो भिन्नमभिन्नम् वाऽस्तीति । भवतु वा तत् तथाप्येकस्मिन् भेदेऽनेकसामान्यसंभवादसांकर्येण सदादिशब्दयोजनं न स्यात् । न च शब्देनाऽनुपदर्य सत्तादिकं सामान्यं सत्तादिना भेदानुपलक्षयितुं समयकारः शक्नुयात्, न चाकृतसमयेषु सत्तादिषु शब्दप्रवृत्तिरस्तीति इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तिः । अथापि स्यात्- स्वयमेव प्रतिपत्ता व्यवहारोपलम्भादन्वयव्यतिरेकाभ्यां सदादिशब्दैः समयं प्रतिपद्यते । असदेतत् - अनन्तभेदविषयनिःशेषव्यवहारोपलम्भस्य कस्यचिदसंभवात् । 'एकदा सत्तादिमत्सु भेदेष्वसकृद् व्यवहारमुपलभ्याऽदृष्टेष्वपि तज्जातीयेषु तान् शब्दान् प्रतिपद्यते' इति चेत् ? न, अदृष्टत्वात्, न ह्यदृष्टेप्वतीतादिभेदभिन्नेष्वनन्तेषु भेदेषु समयः सम्भवति अतिप्रसङ्गात् । विकल्पबुद्धयाऽव्या(?ध्या)हत्य तेषु तप्रतिपत्त्य(या?)भ्युपगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एव शब्दसंकेतः प्राप्तः । तथाहि - अतीतानागतयोरसत्त्वेनाऽसन्निहितत्वात् तत्र विकल्पबुद्धिर्भवन्ती निर्विषयैव, तत्र भवन् समयः कथं परमार्थवस्तुविषयो भवेदिति ? सपक्षे भावाद् नापि तोविरुद्धतेति सिद्धं स्वलक्षणाऽविषयत्वं शब्दानाम् । ___ उद्योतकर का यह प्रतिपादन भी असार है । कारण, भेदों से अतिरिक्त या अनतिरिक्त सत्तादिरूप वास्तविक सामान्य अस्तित्व में ही नहीं है फिर उसके एकत्व द्वारा संकेत के सम्भव की बात ही कहाँ ? अथवा मान लो कि 'सामान्य' है किन्तु वह भी आप के मत में किसी एक ही द्रव्यादि में - सत्ता, द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व, गुणत्व, रूपत्व आदि जब अनेक संख्या में है- तो असंकीर्ण रूप से यानी किसी एक शब्द से सत्ता से उपलक्षित द्रव्य का ही प्रतिपादन हो न कि द्रव्यत्वादि से उपलक्षित का - इस प्रकार के असंकीर्ण रूप से 'सत्' आदि शब्दों का प्रयोग अन्योन्याश्रय दोष के कारण नहीं हो सकेगा । अन्योन्याश्रय इस ढंग से है कि जब तक संकेतकारक पुरुष पृथक् पृथक् सत्तादि सामान्य का शब्दों से प्रतिपादन न कर दिखावे तब तक सत्तादिविशेषण रूप से भेदों का उपलक्षण यानी निरूपण शक्य नहीं होगा और तब तक सत्तादि के लिये शब्दों की प्रवृत्ति भी नहीं हो सकेगी । इस प्रकार शब्दों की प्रवृत्ति के लिये संकेतक्रिया और संकेतक्रिया के लिये शब्दप्रवृत्ति यह अन्योन्याश्रय दोष लगा रहेगा। ★ व्यवहार से संकेतग्रह असम्भव ★ अगर कहें कि - "श्रोता को सत् इत्यादि शब्दों के संकेत का ग्रहण तो चिरप्रवृत्त लोकव्यवहार से अन्वय-व्यतिरेक सहचार द्वारा स्वयमेव हो जाता है - उस के लिये शब्दप्रयोक्ता को कुछ भी कष्ट करना नहीं पडता है । इस लिये अन्योन्याश्रय निरवकाश है"- तो यह गलत बात है । कारण, भेद तो अनन्त है इसलिये तत्संबन्धि सकल व्यवहारों का भान किसी एक पुरुष के लिये शक्य ही नहीं है, तो उन सभी के संकेत का ग्रहण भी कैसे शक्य होगा ? यदि ऐसा कहें कि - 'सत्ता वगैरह से विशिष्ट भेदों के सम्बन्ध में बार बार होने वाले व्यवहार का जब एक बार ज्ञान हो गया तो फिर उस के समान जातिवाले अदृष्ट भेदों के लिये संकेतित शब्दों के ग्रहण में भी देर नहीं लगती। इसलिये भेद अनंत होने पर भी संकेतग्रहण शक्य होगा।' – तो यह भी ठीक नहीं है। कारण वे समान जातिवाले भेद अदृष्ट हैं । अतीत और अनागत आदि रूप से भिन्न भिन्न अनन्त भेद जब तक दृष्ट ही नहीं हैं तब तक उनमें संकेतक्रिया का ही संभव नहीं है तो संकेतग्रहण की तो बात ही कहाँ ? अदृष्ट होने पर भी यदि उनमें संकेत का सम्भव मानेंगे तो खरविषाण आदि में भी मानने का संकट आयेगा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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