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द्वितीयः खण्डः - का०-२
प्रमाणमिति कथं न व्याप्तिसिद्धिः ?
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अयमेव वा ‘अकृतसमयत्वात्' इति हेतुराचार्यदिग्नागेन 'न जातिशब्दो भेदानां वाचकः आनन्त्यात्” ] इत्यनेन निर्दिष्टः । तथाहि - 'आनन्त्यात्' इत्यनेन समयाऽसंभव एव दर्शितः । तेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण “यदि शब्दान् पक्षयसि तदा 'आनन्त्यात्' इत्यस्य वस्तुधर्मत्वाद् व्यधिकरणो हेतुः, अथ भेदा एव पक्षीक्रियन्ते तदा नान्वयी न व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्तीत्यहेतुरानन्त्यम्” [न्यायवा० २-२-६८ पृ० ३२३] इति तत् प्रत्युक्तम् । यत् पुनः स एवाह “यस्य निर्विशेषणा भेदाः शब्दैरभिधीयन्ते तस्याऽयं दोषः अस्माकं तु सत्ताविशेषणानि द्रव्यगुण-कर्माण्यभिधीयन्ते । तथाहि यत्र यत्र सत्तादिकं सामान्यं पश्यति तत्र तत्र सदादिशब्दं प्रयुङ्क्ते, एकमेव च सत्तादिकं सामान्यम् अतः सामान्योपलक्षितेषु भेदेषु जायेगा । यही अतिप्रसंगरूप आपत्ति विपक्ष कल्पना में बाधक प्रमाणरूप है, तो व्याप्ति क्यों असिद्ध रहेगी ? ★ दिग्नागमतविरोधी उद्योतकरकथन की आलोचना ★
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अकृतसमयत्व हेतु का जो तात्पर्य है कि वस्तुमात्र में संकेत का असंभव, इसी तात्पर्य से 'अकृतसमयत्व' हेतु का निर्देश शब्दभेद से दिग्नागाचार्यने ऐसा किया है कि " जातिशब्द (यानी कोई भी सामान्यके वाचक रूप में मान्य शब्द) भेदसमूह का (यानी वस्तुसमूह का ) वाचक नहीं है चूँकि भेद अनन्त है ।" यहाँ 'भेद अनन्त है' ऐसा कहने का यही तात्पर्य है कि भेद अनन्त होने से संकेत का वहाँ संभव ही नहीं है ।
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इस तात्पर्य को समझे बिना ही जो उद्योतकर ने 'आनन्त्य' हेतु पर दो विकल्प कर के खंडन करते हुए कहा है कि " अगर आप (दिग्नाग) शब्दों को पक्ष कर के भेदों के 'अनन्तत्व' को हेतु करते हो तो वह शब्दरूप पक्ष में न रहने से, भेदरूप वस्तु का धर्म होने से साध्य का व्यधिकरण हुआ और व्यधिकरण हेतु से प्रस्तुत पक्ष में किसी भी साध्य की सिद्धि अशक्य है । अब यदि भेदों को ही पक्ष कर के उन में शब्दवाच्यत्वाभाव सिद्ध करने के लिये 'अनन्तत्व' हेतु कहेंगे तो वहाँ वस्तुमात्र पक्षान्तर्गत हो जाने से न तो कोई अन्वयसहचारप्रदर्शक दृष्टान्त मिलेगा न तो कोई व्यतिरेकसहचार प्रदर्शक दृष्टान्त सुलभ होगा । इसलिये 'अनन्तत्व' यह वास्तविक हेतु नहीं हुआ ।" इस उद्द्योतकर के खंडनात्मक कथन का प्रतिषेध हो जाता है क्योंकि 'आनन्त्य' का तात्पर्य ही अलग है जो उपर कहा है ।
और भी जो उन्होनें न्यायवार्त्तिक में कहा है कि हमारे पक्षमें अनन्तत्व हेतु से जो संकेतासंभवरूप दोष दिखाया है वह भी उन लोगों के मत में लगता है जो मानते हैं कि 'शब्दों से भेदों का प्रतिपादन किसी भी विशेषणरूप से नहीं होता है ।' तात्पर्य यह है कि किसी विशेषणरूप नहीं किन्तु सभी भेदों का पृथक् पृथक् व्यक्तिरूप से शब्दों द्वारा प्रतिपादन अभिप्रेत हो तो वहाँ भेद अनन्त होने से संकेत के असंभव की बात ठीक है । किन्तु हम तो मानते हैं कि शब्दों से सत्तादि रूप विशेषणविशिष्ट द्रव्य का, गुण का या कर्म का प्रतिपादन होता है । प्रयोजक पुरुष जहाँ जहाँ सत्तादिरूप सामान्य को देखता है वहाँ वहाँ 'सत्' आदि शब्दों का प्रयोग करता है । अब ये सत्ता आदि सामान्य तो एक ही है अनन्त नहीं, इस लिये उन सत्ता आदि एक एक सामान्यरूप विशेषण से उपलक्षित भेदों में संकेतकरण का पूरा सम्भव है । निष्कर्ष, दिग्नागकथित 'अनन्तत्व' हेतु निष्प्रयोजन है ।
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*. इदं तथ्यं न्यायवार्त्तिकपृष्ठ ३२३ - त०सं० पं० पृ० २७७ -
मध्ये निरीक्षणाम् ।
श्लोक०वा० पार्थसारथिव्याख्यायां पृ० ५९६
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स्याद्वादकल्पलता स्त० ११
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