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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न्दानां प्रतिज्ञा-हेत्वोाघातः [न्या. वा० २ सू० ६७ -पृ. ३२७ पं० ६-७] इति तदपि प्रत्युक्तं भवति, न हि सर्वथा शब्दार्थापवादोऽस्माभिः क्रियते आबालगोपालेभ्योऽपि प्रतीतत्वात् तस्य - किन्तु तात्त्विकत्वं धर्मः परैर्यस्तत्रारोप्यते तस्यैव निषेधो न तु धर्मिणः ।
[१ - स्वलक्षणे संकेताऽसम्भवः ] तत्र स्वलक्षणे न तावत् समयः संभवति शब्दस्य । समयो हि व्यवहारार्थ क्रियते न व्यसनितया, तेन यस्यैव संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तत्रैव स व्यवहर्तृणां युक्तो नान्यत्र । न च स्वलक्षणस्य संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति । तस्मान तत्र समयः । संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वमशावलेयादिव्यक्तीनां देशादिभेदेन परस्परतोऽत्यन्तव्यावृत्ततयाऽनन्वयात् तत्रैकत्र कृतसमयस्य पुंसोऽन्यैर्व्यवहारो न स्यादिति तत्र समयाभावाऽसिद्धता हेतोः । न चाप्यनैकान्तिकत्वम् व्याप्तिसिद्धेः । तथाहि - यद्यगृहीतसंकेतमर्थ शब्दः प्रतिपादयेत् तदा गोशब्दोऽश्वं प्रतिपादयेत् संकेतकरणानर्थक्यं च स्यात्, तस्मादतिप्रसंगापत्तिर्बाधकं आप जिस का प्रतिपादन करते हैं उसमें शब्दार्थत्व को मानना होगा अन्यथा स्वलक्षणादिशब्द से उसका प्रतिपादन शक्य न होगा । इस प्रकार शब्दार्थत्व को मानने पर भी आप प्रतिज्ञावचन के द्वारा उस का निषेध कर रहे
धकारक प्रतिज्ञावचन स्वलक्षणादि के प्रतिपादन से ही व्याहत हो जायेगा" - किन्तु ऐसा विरोध हमें अस्वीकार्य है क्योंकि हम काल्पनिक शब्दार्थत्व को मानते हैं।
उपरोक्त चर्चा से, उद्योतकर का यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि - "शब्दों को वाचक न मानेगें तो प्रतिज्ञाशब्द और हेतुशब्द का व्याघात होगा" - यह इस लिये निरस्त हो जाता है कि हम अर्थों में शब्दवाच्यता का सर्वथा अपलाप नहीं करते हैं, क्योंकि बालक से ग्वाले तक लोगों को शब्द द्वारा अर्थों की प्रतीति होती है, किन्तु हम यह कहते हैं कि अन्य लोग जो शब्दार्थत्व में तात्त्विकता धर्म का आरोपण करते हैं- उसी का हम निषेध करते हैं, धर्मिरूप शब्दार्थता का निषेध नहीं करते क्योंकि वह काल्पनिक भी हो सकता है।
*स्वलक्षण में संकेत का असम्भव ★ पारमार्थिक वस्तु में संकेत असंभव है इसका और स्पष्टीकरण करते हुए बौद्ध कहता है - स्वलक्षणरूप सत्य वस्तु में शब्द का संकेत असंभव है । संकेत कोई शौख से नहीं किया जाता किन्तु व्यवहार के लिये किया जाता है । इसलिये व्यवहार कर्ताओं के द्वारा उसी वस्तु में संकेत किया जाना उचित है जो वस्तु संकेतकाल से व्यवहारकालपर्यन्त जीवित रहे । स्वलक्षण तो क्षणमात्रजीवी वस्तु है, संकेतकाल से व्यवहारकालपर्यन्त वह स्थायी नहीं है, इसलिये उस में संकेत अशक्य है । शाबलेय [विविधरंगी गौ] आदि व्यक्तियाँ अनेक हैं और देश-कालादि भेद से भिन्न भिन्न हैं, परस्पर एक-दूसरे से अत्यन्त भिन्न भिन्न उन में कोई सम्बन्ध ही नहीं है, इसलिये संकेतकाल से व्यवहारकालपर्यन्त स्थायी कोई नहीं है, अत एव मनुष्य किसी एक व्यक्ति में संकेत करेगा, तो अन्य व्यक्तियाँ संकेतहीन रह जाने से उन व्यक्तियों के द्वारा कोई भी व्यवहार नहीं हो सकेगा क्योंकि उन में संकेत नहीं किया गया है । तात्पर्य, स्वलक्षण में संकेत का सम्भव नहीं है इसलिये 'तदर्थभिधायकत्वाभाव' साध्य की सिद्धि के लिये जो 'अकृतसमयत्व' हेतु कहा है वह असिद्ध नहीं है।
___ साध्यद्रोही भी नहीं है, क्योंकि व्याप्ति प्रसिद्ध है । देखिये - शब्द अगर ऐसे अर्थ का प्रतिपादन करेगा जिसमें उसका संकेत गृहीत ही नहीं है, तो अश्व में जिस पद का संकेत गृहीत ही नहीं है ऐसे गो-पद से भी अश्व का प्रतिपादन शक्य बन जायेगा, फिर संकेत करने की जरूर भी क्या होगी ? संकेत निरर्थक रह
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