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द्वितीयः खण्डः - का० - ३
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गोsनुपपन्नः । तथा, पुरुषभेदेऽपि नैकं (का) तद् वस्तु इति 'एहि, मन्ये रथेन यास्यसि नहि यास्यसि यातस्ते पिता' इति च प्रयोगो न युक्तः अपि तु 'एहि मन्यसे यथाहं रथेन यास्यामि' इत्यनेनैव परभावेनैतनिर्देष्टव्यम् । एवमुपग्रहणभेदेपि 'विरमति' इति न युक्त आत्मार्थतायां हि 'विरमते' इत्यस्यैव प्रयोगसंगतेः । नत्वेवं लोकशास्त्रव्यवहारविलोप इति वक्तव्यम्, सर्वत्रैव नयमते तद्विलोपस्य समानत्वादिति यथार्थशब्दनात् शब्दनयो व्यवस्थितः । तदुक्तम् -
विरोधिलिंग-संख्यादिभेदात् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ [ ] [ समभिरूढनयाभिप्राय: 1
एकसंज्ञासमभिरोहणात् समभिरूढस्त्वाह यथा हि विरुद्धलिंगादियोगाद् भिद्यते वस्तु तथा होगा' वह प्रयोगवचन अनुचित है, क्योकि यज् धातु से इन प्रत्यय भूतकाल में किया गया है जब कि 'जनिता' भविष्यका सूचक प्रत्यय है, किन्तु वास्तव में अतीत - अनागतकाल का अन्योन्य संसर्ग नहीं होता । ★ कारकादि के भेद से वस्तुभेद - शब्दनय★
संख्याभेद से वस्तुभेद की तरह कारकभेद से भी वस्तुभेद होता है, अतः जो एक कारक से आक्रान्त वस्तु ग्रामादि है वह अन्यकारक से अक्रान्त नहीं बन सकती । व्याकरणकारों ने 'अधिउपसर्ग के साथ 'शीङ्' धातु का प्रयोग होने पर अधिकरणकारक युक्त ग्रामरूप अर्थ वाचक 'ग्राम' शब्द को ' ग्राममधिशेते' इस प्रकार द्वितीयाविभक्ति करने के लिये ग्राम की वहाँ कर्म संज्ञा बना लिया है । [ 'अधेः शीङ्-स्थासः आधार : '- हैम० २-२-२० तथा 'अधिशीङ्स्थासां कर्म' पाणिनि १ ४ ४६ ] । शब्दनय इसका विरोध करता है, ग्राम में अधिकरणकारक को सूचित करने के लिये अधिकरणवाचक सप्तमी विभक्ति का ही प्रयोग होना चाहिये क्योंकि अधिकरण और कर्म ये भिन्न भिन्न कारक एक वस्तु में समाविष्ट नहीं हो सकते । अतः ' ग्राममधिशेते' यह प्रयोग असंगत ही है क्योंकि अधिकरणकारकाक्रान्त ग्राम वस्तु, कर्मकारकसूचक द्वितीयाविभक्तिवाले ' ग्रामम्' पद से वाच्य नहीं हो सकता ।
कारकभेद की तरह पुरुषभेद से भी वस्तुभेद होता है, पुरुषभेद रहने पर वस्तु एक नहीं हो सकती । पाणिनिऋषिने १- ४- १०६ सूत्र में 'मन्य' धातु के होते हुये ' यास्यामि' के स्थान में ' यास्यसि' इस प्रकार द्वितीय ( = मध्यम ) पुरुष के प्रत्यय का विधान किया है- तथा 'मन्य' धातु को वहाँ मध्यमपुरुष के बदले उत्तम पुरुष का विधान किया है- प्रयोग ऐसा है - 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता' [ = आइये, आप समझते हैं कि रथ से जाऊँगा लेकिन आप नहीं जायेंगे क्योंकि आप के पिता रथ लेकर चल गये हैं ।) शब्दनय कहता है कि यह प्रयाग ठीक नहीं है, 'मन्यसे यथाहं रथेन यास्यामि' ऐसा हि प्रयोग करके 'तू समझता है कि मैं रथ से जाउँगा' इस प्रकार परभाव से यानी उत्तम पुरुष से अन्य पुरुष का ही निर्देश करना चाहिये, और इसलिये 'मन्ये' के बदले 'मन्यसे' का प्रयोग होना चाहिये एवं ' यास्यसि' के बदले 'यास्यामि' का - उत्तमपुरुष का द्वितीयपुरुष के विशेषणरूप में प्रयोग होना चाहिये । [ ध्यान में रहें कि सिद्धहेमशब्दानुशासन में पाणिनि की तरह अलग सूत्र नहीं बनाया है किन्तु त्रीण त्रीणि अन्ययुस्मदस्मदि' ( ३-३- १७) सूत्र की बृहद्वृत्ति में उसका निर्देश किया है । ]
तथा 'रम्' धातु को इदित होने से आत्मनेपद के प्रत्यय लगते हैं किन्तु 'व्याङ्परे रम:' ( ३-३-१०५ ) इस सिद्धम० सूत्र से 'विरमति - आरमति - परिरमति' इस प्रकार तीन उपसर्गों के साथ रम् धातु को परस्मैपद
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