SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न सम्बन्धमनुभवत्येवं गोत्वादिकल्प(ना?)सामान्यविशेषस्वरूपरस्परविरुद्धस्त्रीत्वायन्यतमधर्मसम्बद्धं नान्यधमी(?)सम्बद्धमनुभवति विरुद्धधर्माध्यासस्य भेदलक्षणात्, तथाप्यभेदे 'न किंचिद् भिन्नं जगदस्ति' इति भेदव्यवहार एवोत्सीदेत् । तथा, एकस्मिनुदकपरमाणौ 'आपः' इति बहुत्वसंख्याया निर्देशोऽनुपपन्नः, न ह्येकत्वसंख्यासमाध्यासितं तदेव तद्विरुद्धबहुत्वसंख्योपेतं भवतीत्येकसंख्ययैव तनिर्देष्टव्यम् । कालभेदाद् वस्तुभेदः ऋजुसूत्रेणाभ्युपगत एवेति 'अग्निष्टोमयाजी पुत्रोऽस्य जनिता' इत्ययुक्तमेव वचः अतीतानागतयोः सम्बन्धाभावात् । तथा अन्यकारकयुक्तं येत् तदेव अपरकारकसम्बन्धं नानुभवतीति अधिकरणं चेद् ग्रामः अधिकरण(शब्द)वाचिविभक्तिवाच्य एव, न कर्माभिधानविभत्त्यभिधेयो युक्त इति 'ग्राममधिशेते' इति प्रयोकाटने के एक साधन के नाम हैं किन्तु फिर भी लिंगभेद है इतना ही नहीं अर्थ में भी कुछ भेद होता है - इसी तरह संस्कृत भाषा में नदीकिनारे के लिये सामान्यत: पुल्लिंग-नपुंसकलिंग में 'तट' और स्त्रीलिंग में 'तटी' शब्द का प्रयोग होता है । शब्दनय ऐसे स्थान में लिंगभेद से अर्थभेद मानता है जो ऋजुसूत्रने सोचा भी नहीं है। शब्दनय में 'तटी' स्त्रीलिंग शब्द का अर्थ छोटी नदी का नाजुक किनारा माना जाता है, 'तट' पुंलिंग शब्द का अर्थ बडी नदी का रेतभरा किनारा माना जाता है और 'तट' नपुंसकलिंग शब्द का अर्थ खाबड-खुबड पथरीला किनारा माना जाता है । इस प्रकार विरुद्ध लिंगस्वरूप धर्म से मुद्रित वस्तु भी विरुद्ध यानी भिन्न भिन्न होती है। उपरोक्त रीति से एक शब्द के साथ भिन्न भिन्न लिंग का सम्बन्ध जोड कर उनका प्रयोग कोई ऐसा आदमी नहीं कर सकता जिसको लिंग-भेद के प्रयोजक धर्मभेद का अनुभव नहीं होता । धर्मभेद होने पर ही जब लिंग-भेद हो सकता है, तो धर्मों के भेद से धर्मीभेद क्यों न माना जाय ? शब्दनय ऋजुसूत्रनयवादी को कहता है कि जैसे क्षणिकवाद में वस्तु को अतीत-अनागत क्षणों के स्पर्शानुभव का निषेध किया जाता है, क्योंकि वर्तमान के साथ अतीत-अनागत का विरोध होता है तो वैसे ही गोत्वादितुल्य लिंगत्व रूप सामान्यधर्म से आक्रान्त एक धर्मी में परस्परविरुद्ध विशेषात्मक स्त्रीत्व-पुंस्त्व-नपुंसकत्व धर्मों का भी समावेश संभव नहीं है, अत: स्त्रीत्वादि किसी एक विशेषधर्म का धर्मी 'तटी' आदि पदार्थ पुंस्त्वादिरूप विरुद्ध धर्म के स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकता, क्योंकि तब विरुद्धधर्माध्यास होगा जो स्वयं ही भेद का लक्षण है न कि अभेद का । यदि विरुद्धधर्माध्यास के रहते हुये भी आप उन में अभेद ही मानेंगे तब तो विरुद्ध धर्माध्यास को छोड कर और कोई भेदकतत्त्व न होने से जगत् में कहीं भी भेद का अस्तित्व नहीं होगा, कोई भी किसी से भिन्न नहीं रहेगा, फलत: भेदकथा ही समाप्त हो जायेगी। लिंगभेद से वस्तुभेद की तरह शब्दनय संख्या(वचन)भेद से भी वस्तुभेद मानता है । संस्कृत में जलवाचक अप् शब्द का 'आप:' इस प्रकार बहुवचन में ही प्रयोग होता है । यहाँ शब्दनय कहता है कि सिर्फ एक जल परमाणु के लिये भी 'आपः' ऐसा बहुत्वसंख्यासूचक बहुवचन का प्रयोग उचित नहीं है, जो एकत्वसंख्या से आक्रान्त है वह एकत्वविरुद्ध बहुत्व की संख्या से आक्रान्त हो नहीं सकता । अत: जल के एकपरमाणु के लिये एकत्वसंख्यासूचक एकवचन का ही प्रयोग उचित है। कालभेद से वस्तुभेद तो ऋजुसूत्र को भी मान्य है और शब्दनय को भी । अत: व्याकरणकारों ने जो ऐसा प्रयोग दिखाया है ‘अग्निष्टोमयाजी पुत्रोस्य जनिता' = जिसने अग्निष्टोमयज्ञ कर लिया हो ऐसा पुत्र इसको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003802
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy